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२२. )
छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, २०.
देसघादिफद्दयाणमुदएण सम्मत्तप्पत्तीदो ओवइयं । ओवसमियं पि तं सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावादो । दंसणमोहणीयमेव सम्मत्तकयाणं सव्वधावित्तणेण उवसंताणं देसघादित्त गेण उदिण्णाणं कारियं वेदगसम्मत्तमिदि तदुभयपच्चइयत्तं उच्चदिति भणिदं होदि । एसो अत्यो पुग्विल्लेसु उत्तरिल्लेसु पदेसु जोजेयव्वो, पहाणत्तादो। एवं संजमासंजम संजम-दाण- लाह - भोग- परिभोग वीरियलद्वीणं पि तदुभयपच्चइयत्तं परूवेवं । आयारधरे त्ति तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो, आयारसुदणाणावरणस्स देसघादिफद्दयाणं सव्वघादित्तणेण उवसंताणमुदएण आयारसुदुप्पत्तीदो। एवं जणिदूण यत्तव्वं जाव दिट्टिवादधरे त्ति वा । एका दशांगविद्गणी । द्वादशांगविद्वाचकः । एवमेदे खओवसमिया भावा अण्णे वि सुहुमीभूदा तदुभयपच्चइयो जीवभावबंधो णाम ।
जो सो अजीवभावबन्धो नाम सो तिविहो विवागपच्चइयो अजीवभावबंधों चेव अविवागपच्चइयो अजीवभावबंधो चेव तदुभयपच्चइयो अजीवभावबंधो चेवं ।। २० ।।
मिच्छत्तासंजम व - कसाय जोगेहितो पुरिसपओगेहि वा जे निप्पण्णा अजीवभावा
समाधान- नहीं, क्योंकि सम्यक्त्वके देशघाति स्पर्धकोंके उदयसे सम्यक्त्वकी उत्पत्ति होती है, इसलिये तो वह ओदायिक है । और वह औपशमिक भी है, क्योंकि, वहाँ सर्वघाति स्पर्धकों का उदय नहीं पाया जाता ।
सम्यक्प्रकृति दर्शनमोहनीयका एक भेद है । उसके सर्वघातिरूपसे उपशमको प्राप्त हुए और देशघातिरूपसे उदयको प्राप्त हुए स्पर्धकों का वेदकसम्यक्त्व कार्य है, इसलिये वह तदुभयप्रत्ययिक कहा गया है; यह उक्त कतनका तात्पर्य है । इस अर्थकी पहलेके और आगे के सब पदों में योजना करनी चाहिए, क्योकि, उभयनिमित्तक भावोंमे इसीकी प्रधानता है ।
इसी प्रकार संयमासंयमलब्धि, संयमलब्धि, दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, परिभोगलब्धि और वीर्यलब्धिको भी तदुभयप्रत्ययिक कहना चाहिये ।
आचारधर तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, आचारश्रुतज्ञानावरण के सर्वघातिरूपसे उपशमको प्राप्त हुए देशघातिस्पर्धकोंके उदयसे आचारश्रुतकी उत्पत्ति होती है इसी प्रकार दृष्टिवादधर तक सब पदोंका जानकर व्याख्यान करना चाहिये ।
ग्यारह अंगका ज्ञाता गणी कहलता है और बारह अंगका ज्ञाता वाचक कहलाता है । इस प्रकार ये क्षायोपशमिक भाव और अति सूक्ष्म दूसरे भीं क्षायोपशमिक भाव तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध हैं ।
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विशेषार्थ - यहाँपर क्षायोपशमिकभावके भेद बहुत विस्तारसे किए गए हैं, फिर भी तत्त्वार्थसूत्र में इस भावके जितने भेद किए गए हैं उनमें इन सब भावोंका अन्तर्भाव हो जाता है अजीवभावबन्ध तीन प्रकारका है-विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध, अविपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध और तदुभयप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध ॥ २० ॥
मिथ्यात्व असंयम, कषाय और योगसे या पुरुषके प्रयत्नसे जो अजीवभाव उत्पन्न होते हैं
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