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________________ ५, ६,१६. ) बंधाणुयोगद्दारे भावबंधपरूवणा एवं दुविहो चेव अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो होदि । जीव-भव्वाभव्वतादिजीवभावा पारिणामिया वि अस्थि, ते एत्थ किष्ण परुविदा ? वुच्चदे-आउआदिपाणाणं धारणं जीवणं णाम । तं च अजोगिचरिमसमयादो उवरि णत्थि सिद्धेसु पाणणिबंधणटुकम्माभावादो । तम्हा सिद्धा ण जीवा जीविदपुव्वा इदि । सिद्धाणं पि जीवत्तं किण्ण इच्छिज्जदे ? ण, उवधारस्स सच्चत्ताभावादो । सिद्धेसु पाणाभावण्णहाणुववत्तदो जीवत्तं ण पारिणामियं, किंतु कम्मविवागजं; यद्यस्य भावाभावानुविधानतो भवति तत्तस्येति वदन्ति तद्विद इति न्यायात् । तत्तो जीवभावो ओवइओ ति सिद्धं । तच्चत्थे जं जीवभावस्स पारिणामियत्तं परूविदं तं पाणधारणत्तं पडुच ण परुविदं, किंतु चेदणगुणमवलंबिय तत्थ परूवणा कदा । चेण तं पिण विरुज्झदे । अघाइकम्मच उक्कोदयजणिदमसिद्धत्तं णाम । तं दुविहं- अणादि-अपज्जवसिदं अनादिसपज्जवसिदं चेदि । तत्थ जेसिमसिद्धत्तमणादि-अपज्जवसिदं ते अभव्वा णाम । जेसिमवरं ते भव्वजीवा । तदो भव्वत्तमभव्वत्तं च विवागपच्चइयं चेव । तच्चत्थे पारिणामियत्तं परुविदं, तेण सह विरोधो कधं ण जायदे ? ण, असिद्धत्तस्स अणादि-अपज्जवसिदत्तं इस तरह दो प्रकारका ही अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध होता है । शंका- जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व आदिक जीवभाव पारिणामिक भी हैं, उनका यहाँ क्यों कथन नहीं किया ? समाधान - कहते हैं, आयु आदि प्राणोंका धारण करना जीवन है । वह अयोगी के अन्तिम समयसे आगे नहीं पाया जाता, क्योंकि, सिद्धोंके प्राणोंके कारणभूत आठों कर्मोंका अभाव है । इसलिये सिद्ध जीव नहीं हैं, अधिकसे अधिक वे जीवितपूर्व कहे जा सकते हैं । शंका- सिद्धों के जीवत्व क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, सिद्धोंमें जीवत्व उपचारसे हैं, और उपचारको सत्य मानना ठीक नहीं है । सिद्धों में प्राणोंका अभाव अन्यथा बन नहीं सकता, इससे मालूम पड़ता है कि जीवत्व पारिणामिक नहीं है । किन्तु वह कर्मके विपाकसे उत्पन्न होता है, क्योंकि, 'जो जिसके सद्भाव और असद्भावका अविनाभावी होता है वह उसका है, ऐसा कार्य कारणभावके ज्ञाता कहते हैं ' ऐसा न्याय है । इसलिये जीवभाव औदयिक है, यह सिद्ध होता है । तत्त्वार्थसूत्र में जीवत्वको जो पारिणामिक कहा है वह प्राणोंको धारण करनेकी अपेक्षासे नहीं कहा है, किन्तु चैतन्य गुणकी अपेक्षासे वहाँ वैसा कथन किया है, इसलिये वह कथन भी विरोधको प्राप्त नहीं होता । चार अघाति कर्मोंके उदयसे उत्पन्न हुआ असिद्धभाव है । वह दो प्रकारक है- अनादिअनन्त और अनादि-सान्त । इनमें से जिनके असिद्धभाव अनादि-अनन्त हैं वे अभव्य जीव हैं और जिनके दूसरे प्रकारका है वे भव्य जीव हैं । इसलिये भव्यत्व और अभव्यत्व ये भी विपाकप्रत्ययिक ही हैं । शंका- तत्त्वार्थ सूत्र में इन्हें पारिणामिक कहा है, इसलिये इस कथनका उसके साथ विरोध कैसे नहीं होगा ? Jain Education International ( १३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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