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________________ १४) छक्खंडागमे वगणा-खंड ( ५, ६, १७. अणादि-सपज्जवसिदत्तं च णिक्कारणमिदि तत्थ तेसि पारिणामियत्तब्भुवगमादो। जो सो ओवसमिओ अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो-से उवसंतकोहे उपसंतमाणे उवसंतमाए उवसंतलोहे उवसंतरागे उवसंतदोसे उवसंतमोहे उवसंतकसायवीयरागछदुमत्थे उवसमियं सम्मत्तं उवसमियं चारित्ते, जे चामण्णे एवमादिया उवसमिया भावा सो सध्वो उवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम ।१७। उवसंतकोहे अणियट्टिम्मि जो भावो सो उवसमिओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; दव-भावकोधाणमवसमेण समुभदत्तादो। उवसंतमाणे जीवे जो भावो सो उव. समियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; दव-भावमाणाणमवसमेण समन्भदत्तादो । उपसंतमाये जीवे जो भावो सो उवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; दव्वभावमायाणमुवसमेण समभदत्तादो । उवसंतलोभे जीवे जो भावो सो वि उवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; दव्व-भावलोहाणमुवसमेण समन्भूदत्तादो । उवसंतरागे जोवे जो भावो सो उसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; माया-लोभ-हस्स-रदि-तिवेददक्वकम्माणमुवसमेण समुन्भूदत्तादो । उवसंतदोसे जीवे जो भावो सो उवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; समाधान-नहीं, क्योंकि, असिद्धत्वका अनादि-अनन्तपना और अनादि-सान्तपना निष्कारण है, यह समझकर उन्हें वहाँ पारिणामिक स्वीकार किया गया है। जो औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है- उपशान्तक्रोध, उपशान्तमान, उपशान्तमाया, उपशान्तलोभ, उपशान्तराग, उपशान्तदोष, उपशान्तमोह, उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ, औपशमिक सम्यक्त्व और औपशमिक चारित्र, तथा इनसे लेकर और जितने औपशमिक भाव हैं वह सब औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है ।। १७ ।। अनिवृत्तिकरणमें क्रोधके उपशमसे जो भाव होता है वह औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह द्रव्य क्रोध और भावक्रोध के उपशमसे उत्पन्न होता है । उपशान्तमान जीवके जो भाव होता है वह औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह द्रव्यमान और भावमानके उपशमसे उत्पन्न होता है । उपशान्तमाया जीवमें जा भाव होता है वह औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह द्रव्यमाया और भावमायाके उपशमसे उत्पन्न होता है। उपशान्तलोभ जीवमें जो भाव होता है वह भी औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभाबबंध है, क्योंकि, वह द्रव्यलोभ और भावलोभके उपशमसे उत्पन्न होता है। उपशान्तराग जीवमें जो भाव होता है वह औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह माया, लोभ, हास्य, रति और तीन वेदरूप द्रव्यकर्मों के उपशमसे उत्पन्न होता हैं । उपशान्तदोष जीवमें जो भाव होता है वह औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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