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________________ ५, ६, १८. ) बंधणाणुयोगद्दारे दवबंधपरूवणा कोह-माण-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं दव्वकम्मवसमेण समुन्भदत्ताबो। ( उवसंतमोहे जीवे जो भावो सो वि उवस मियो अविवामपच्चइयो जीवभावबंधो, अट्ठावीस मोहणीयपयडीणं दव्वकम्मवसमेण समुभदत्तादो) उवसंतकसायवीयरायछदुमत्थे जीवे जो भावो सो वि उवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधों; पणुवीसकसायाणं दव्वकम्मुवसमेण समुभदत्तादो। जमवसमियं सम्मत्त तं पि उवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; तिविहदंसणमोहणीयदव्वकम्मुवसमेण समुप्पत्तीए । जं उवसमियं चारित्तं तं पि गवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; चारित्तमोहणीयस्स देस.सवसमणाए समुन्भूदत्तादो।जे च अमी पुवुत्ता भावा अण्णो वा वि अपुव्वअणिर्याट्ट-सुहमसांपराइय-उवसंतकसाएसु समयं पडि जे उप्पज्जमाणा जीवभावा सो सव्वो उबसमिओ अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो णाम । जो सो खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णिद्देसो-से खीणकोहे खीणमाणे खीणमाये खीणलोहे खीणरागे खीणदोसे खीणमोहे खीणकसायवीयरायछदुमत्थे खइयसम्मत्तं खइयचारित्तं खइया वाणलद्धी खइया लाहलद्धी खइया भोगलद्धी खइया परिभोगलद्धी खइया वीरियलद्धी केवलपाणं केवलदसणं सिद्ध बुद्ध परिणिव्वदे सव्ववखाणमंतयडे ति जे चामण्णे एवमादिया खाइया भावा सोसवो खाइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम ॥१८॥ क्योंकि, वह क्रोध, मान, अरति, शोक, भय और जुगुप्सारूप द्रव्य कर्मीके उपशमसे उत्पन्न होता है । उपशान्तकषाय-वीतरगछद्मस्थ जीवमें जो भाव होता है वह भी औपमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह पच्चीस कषायरूप द्रव्यकर्मोंके उपशमसे उत्पन्न होता है । जो औपशमिक सम्यक्त्व है वह भी औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, व तीन प्रकारके दर्शनमोहनीय द्रव्यकर्म के उपशमसे उत्पन्न होता है । जो औपशमिक चारित्र है वह भी औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह चारित्रमोहनीयकी देशोपशमना और सर्वोपशमनासे उत्पन्न होता है। चूंकि ये पूर्वोक्त भाव और दूसरे भी अपूर्वकरण, अनिवृत्ति करण, सूक्ष्मसाम्पराय और उपशान्त कषाय गुणस्थानों में प्रत्येक समयमें उत्पन्न होनेवाले जो जीवके भाव हैं वह सब औपशमिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है। जो क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार हैक्षीणक्रोध, क्षीणमान, क्षीणमाया, क्षीणलोभ, क्षीणराग, क्षीणदोष, क्षीणमोह, क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दानलब्धि, क्षायिक लाभलब्धि, क्षायिक भोगलब्धि, क्षायिक परिभोगलब्धि, क्षायिक वीर्यलब्धि, केवलज्ञान, केवलदर्शन, सिद्ध, बुद्ध, परिनिर्वृत्त, सर्वदुःख-अन्तकृत, इसी प्रकार और भी जो दूसरे क्षायिक भाव होते हैं वह सब क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है ।।१८। प्रतिषु 'अणेया वि' इति पाठः ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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