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________________ १६ ) छवखंडागमे वग्गणा - खंड ( ५, ६, १८. खोकीहे जीवे जो भावो सो खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम; दव्व भावको हाणं णिरवसे सक्खएण समुप्पण्णत्तदो । खोणमाणे जीवे जो भावो सो विखइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधी णाम; दव्व-भावमाणक्खएण समुप्पत्तीदो☼ । खीणमाए जीवे जो भावो सो वि खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो ; दुविहमायक्खएण समुप्पत्ती दो । खोणलोहे जीवे जो भावो सो त्रिखइओ अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो; दुविहलो हक्खएण समुप्पत्तीदो । खीणरागे जीवे जो भावो सो अविवाग. पच्चइयो जीवभावबंधो; माय- लोह-हस्स·रदि-तिवेदाणं दुविहकम्मक्खएण समुब्भूदत्तादो । खीणदोसे जीवे जो भावो सो वि खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो ; कोह- माण- अरदि सोग-भय- दुगंछाणं दुविहकस्मवखरण समुत्पत्ती दो । खोणमोहे जीवे जो भावो सो वि खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; अट्ठावीसभेदभिष्णमोहक्खएण समुद्भूदत्तादो। खीणकसायवीदरागछदुमत्थे जीवे जो भावो सो वि खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; पंचवीसकसायाणं णिस्सेसक्खएण समुप्पत्तीदो। जं खइयं सम्मत्तं तं पि खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; दंसणमोहक्खएण सभुपत्तदो । जं खइयं चारितं तं पि खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो, चारितमोहक्खण समुप्पत्तीदो । जा खइया दाणलद्धी सो वि खइयो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो; दाणंतराइयस्स णिम्मूलक्खएण समुप्पत्ती दो । अरहंता खीणदाणंतराइया क्षीणक्रोध जीवमें जो भाव होता है वह क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह द्रव्य और भाव क्रोध के सर्वथा क्षयसे उत्पन्न होता है। क्षागमान जीवमें जो भाव होता है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह द्रव्यमान और भावमानके क्षयसे उत्पन्न होता है । क्षीणमाया जीवमें जो भाव होता है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह दो प्रकारकी मायाके क्षयसे उत्पन्न होता है । क्षीणलोभ जीवमें जो भाव होता है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह दो प्रकारके लोभके क्षयसे उत्पन्न होता है । क्षीणराग जीवमें जो भाव होता है वह भी अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह दोनों प्रकारके माया, लोभ, हास्य, रति और तीन वेदरूप कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होता है । क्षीणदोष जीवमें जो भाव होता है वह भी क्षायिक अविपाक -- प्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह दोनों प्रकारके क्रोध, मान, अरति, शोक, भय और जुगुसारूप कर्मों के क्षयसे उत्पन्न होता है । क्षीणमोह जीवमें जो भाव होता है वह क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह अट्ठाईस प्रकारके मोहनीयके क्षयसे जत्पन्न होता है । क्षीणकषाय- वीतरागछद्मस्थ जीवमें जो भाव होता है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह पच्चीस कषायोंके निश्शेष क्षयसे उत्पन्न होता है। जो क्षायिक सम्यक्त्व है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है, क्योंकि, वह दर्शन मोहनीयक क्षयसे उत्पन्न होता है । जो क्षायिक चारित्र है, वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह चारित्रमोहनीय क्षयसे उत्पन्न होता है । जो क्षायिक दानलब्धि है वह भी क्षायिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबंध है, क्योंकि, वह दानान्तरायके निर्मूल क्षयसे उत्पन्न होती है । समुत्पत्तीए' इति पाठ: । एवमग्रेऽपि । मप्रतिपाठोऽयम् अ-आ- कानाप्रतिषु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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