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१२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ६, १६. सयलविरइघाइकम्मोदयजणिदत्तादो। संजम-विरईणं को भेदो ? ससमिदिमहन्वयाणुव्वयाइं संजमो । समिईहि विणा महन्वयाणुव्वया विरई। अण्णाणं विवागपच्च इयं ; मिच्छत्तोवयजणिवत्तादो णाणावरणकम्मोदयजणिवत्तादो वा। मिच्छत्तं विवागपच्चइयं; मिच्छत्तोदयजणिदत्तादो । जे च अमी अण्णे च एवमादिया कम्मोदय-- पच्चइया उदयविवागणिप्पण्णा सो सम्वो विवागपच्चइयो जीवभावबंधो गाम ।
जो सो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम सो दुविहोउवसमियो अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो चेव खइयो अविवागपच्चइओ जीवभावबंधो चेव ॥ १६ ॥
वाले कर्मोंके उदयसे उत्पन्न होता है । अविरतभाव भो विपाकप्रत्ययिक है, क्योंकि, यह देशविरति और सकल विरतिके घातक कर्मों के उदयसे उत्पन्न होता है।
शंका--संयम और विरतिमें क्या भेद है ?
समाधान--समितियोंके साथ महाव्रत और अणुव्रत संयम कहलाते हैं और समितियोंके बिना महाव्रत और अणुव्रत विरति कहलाते हैं । यही इन दोनोंमें भेद है।
अज्ञानभाव भी विपाकप्रत्ययिक होता है. क्योंकि. यह मिथ्यात्वके उदयसे अथवा ज्ञानातरणके उदयसे उत्पन्न होता है । मिथ्यात्व भी विपाकप्रत्ययिक होता है, क्योंकि, यह मिथ्यात्वके उदयसे उत्पन्न होता है। इसी प्रकार कर्मोदयप्रत्ययिक उदयविपाकनिष्पन्न और जितने भाव होते हैं वे सब विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहलाते हैं।
विशेषार्थ-प्रकृतमें प्रत्यय शब्द निमित्तवाची है । यहाँ देवभाव, मनुष्यभाव आदि जितने भाव गिनाये हैं ये सब विवक्षित कर्मके उदय और उदीरणाके निमित्तसे होते हैं, इसलिये इन्हें विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहा है। यहाँ ये कुल चौबीस भाव गिनाये हैं। जब कि तत्त्वार्थसूत्रमें कुल इक्कीस भाव ही गिनाये हैं। तत्त्वार्थसूत्र में गिनाये गये भावोंमेंसे असिद्धत्व भाव यहाँ नहीं गिनाया है और यहाँ राग, दोष, मोह और अविरति ये चार भाव अतिरिक्त गिनाये हैं। इनमेंसे यद्यपि अविरति भावका सामान्यतः असंयतभावमें अन्तर्भाव किया जा सकता है, पर शेष तीन भावोंके गिनाने में विशिष्ट दृष्टिकोणकी प्रतीति होती है। नोकषायोंके नौ भेद हैं, उनमेंसे रति आदिके उदयसे होनेवाले भावोंका तत्त्वार्थसूत्र में दर्शन नहीं होता, जब कि यहाँ इन भावोंका राग और दोष में अन्तर्भाव हो जाता है। इसी प्रकार सासादनभाव और सम्यग्मिथ्यात्वभावकी परिगणना भी तत्त्वार्थसूत्र में नहीं की गई है जब कि यहाँ इनका अन्तर्भाव मोहमें हो जाता है। एक बात अवश्य है कि यहाँ असिद्धत्व भाव नहीं गिनाया है, पर इसके साथ यहाँ इसी प्रकार और दूसरे भावोंके ग्रहण करनेकी सूचना अवश्य की है । इसलिये कोई हानि नहीं है । आशय यह है कि यहाँ औदयिक भावोंका विचार करते समय उस दृष्टिकोणको अपनाया गया है जिससे प्रायः सभी भावोंका ग्रहण हो जाता है।
___ अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध दो प्रकारका है--औपशामिक अविपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध और क्षायिक अविपाकप्रत्यायिक जीवभावबन्ध ।। १६ ॥
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