SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बंधणाणुयोगद्दारे भावबंधपरूवणा एवमादिया कम्मोदयपच्चइया उदयविवागणिप्पण्णा भावा सो सव्वो विवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम ।। १५ ।। देवगदिणामकम्मोदएण अणिमादिगुणं णीदो देवभावो होदि । मणुसगदिणामकम्मोदएण अणिमादिगुणवदिरित्तो मणुस्से ति भावो होदि । तिरिक्खगइणामकम्मो. दएण तिरिक्खे त्ति भावो। णिरयगइणामकम्मोदएण णेरइए त्ति भावो। इत्थिकम्मोदएण इथिवेदो ति भावो होदि । पुरिसवेदभावो विवागपच्चइयो; पुरिसवेदोदयजणिदत्तादो। णवंसयवेदभावो विवागपच्चइयो; णवंसयवेदकम्मोदयजणिदत्तादो। कोधमाण-माया-लोभभावा विवागपच्चइया; कोध-माण-माया-लोभदव्वकम्मविवागजणिदत्तादो । रागो विवागपच्चइयो; माया-लोभ-हस्स-रदि-तिवेदाणं दव्वकम्मोदयणिदत्तादो । दोसो विवागपच्चइयो; कोह-माण-अरदि सोग-भय-दुगुंछाणं दव्वकम्मोदयजणिदत्तादो । पंचविहमिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं सासणसम्मत्तं च मोहो, सो विवागपच्चइयो; मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तं-अणंताणबंधोणं दव्वकम्मोदयजणिदत्तादो। किण्णणील-काउ-तेउ-पम्म- सुक्कलेस्साओ विवागपच्चइयाओ अघादिकम्माणं तप्पाओग्गदव्वकम्मोदएण कसाओदएण च छलेस्सागिप्पत्तीदो। असंजदत्तं विवागपच्चइयं; संजमघादिकम्माणमुदएण समप्पण्णतादो। अविरवत्तं विवागपच्चइयं देस इसी प्रकार कर्मोदयप्रत्ययिक उदयविपाकसे उत्पन्न हुए और जितने भाव हैं वे सब विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध हैं ॥ १५॥ देवगति नामकर्मके उदयसे जो अणिमा आदि गणोंको प्राप्त करता है वह देवभाव है। मनुष्यगति नामकर्मके उदयसे अणिमा आदि गुणोंसे रहित मनुष्यभाव होता है। तिर्यंचगति नामकर्मके उदयसे तिर्यचभाव होता है। नरकगति नामकर्मके उदयसे नारकभाव होता है । स्त्रीवेद कर्मके उदयसे स्त्रीवेदरूप भाव होता है । पुरुषवेदभाव विपाकप्रत्ययिक है, क्योंकि, वह पुरुषवेदके उदयसे उत्पन्न होता है । नपुंसकवेदभान विपाकप्रत्ययिक है, क्योंकि, वह नपुंसकवेद कर्मके उदयसे उत्पन्न होता है। क्रोध, मान, माया और लोभ ये भाव भी विपाकप्रत्ययिक होते हैं ; क्योंकि, ये भाव क्रोध, मान, माया और लोभरूप द्रव्यकर्मों के विपाकसे उत्पन्न होते हैं। राग भी विपाकप्रत्ययिक होता है, क्योंकि, इसकी उत्पत्ति माया, लोभ, हास्य, रति और तीन वेदरूप द्रव्यकर्मों के विपाकसे होती है। दोष भी विपाक्प्रत्ययिक होता है, क्योंकि, इसकी उत्पत्ति क्रोध, मान, अरति, शोक, भय और जुगुप्सारूप द्रव्य कर्मके विधाकसे होती है। पाँच प्रकारका मथ्यात्व,, सम्यग्मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्व मोह कहलाता है। वह भी विपाकप्रत्ययिक होता है क्योंकि, इसका उत्पत्ति मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनतानुबन्धीरूप द्रव्यकर्मके उदयसे होती है। कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ललेश्या भी विपाकप्रत्ययिक होती हैं, क्योंकि, छह लेश्याओंकी उत्पत्ति अघाति कर्मोंमेंसे तत्प्रायोग्य द्रव्यकर्मके उदयसे और कषायके उदयसे होती हैं । असंयतभाव भी विपाकप्रत्ययिक होता है, क्योंकि, यह संयमका घात करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy