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________________ बंधणाणुयोगद्दारे बादरणिगोददव्ववग्गणा ( ९१ संपाहि खोणकसायपढमसमयप्पडि ताव बादरणिगोदजीवा उप्पज्जंति जाव तेसि चेव जहणाउवकालो सेसो ति । तेण परं ण उप्पज्जति । कुदो ? उप्पण्णाणं जीवणीयकालाभावादो। तेण कारणेण बादरणिगोदजीवा एत्तो पहुडि जाव खोणकसायचरिमसमओ ति ताव सुद्धा मरंति चेव । संपहि खीणकसायचरिमसमए आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपुलवियासु* पुध पुध असंखेज्जलोगमेत्तणिगोदसरीरेहि आउण्णासु द्विदिअणंताणंतजीवाणं अणेताणंतविस्तासुवचयसहियकम्म-णोकम्मसंघाओ सव्वजहणिया बादरणिगोददव्ववग्गणा होदि । ____ संपहि एदिस्से बादरणिगोददव्ववग्गणाए ढाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-- एत्थ ताव अणंताणंतजीवाणं ओरालियसरीरपरमाणपुंजं विस्सासुवचएहि सह पुध द्वविय पुणो तेसि चेव सवेसि जीवाणं सविस्सासुवचय-तेजासरीरपरमाणपंजं विस्सासुवचएहि सह कम्मइयसरीरपरमाणुपुंजं च पुध gविय एदेसि छण्णं पुंजाणमुवरि परमाण वड्डाविय ढाणप्पत्ती वुच्चदे--- तथा परोपघातसे जिसकी स्मृति कठोर हो गई है, अर्थात् जो परोपघातका विचार करता है उसका कल्याण नहीं होता। तथा कोई दूसरे जीवोंको नहीं मारता हुआ भी हिंसकपनेको प्राप्त होता है। इस प्रकार हे जिन ! तुमने यह अतिगहन प्रशमका हेतु प्रकाशित किया है, अर्थात् शान्ति का मार्ग बतलाया है ।। ६ ।। क्षीणकषायके प्रथम समयसे लेकर बादर निगोद जीव तब तक उत्पन्न होते हैं जब तक क्षीणकषायके काल में उनका जघन्य आयुका काल शेष रहता है। इसके बाद नहीं उत्पन्न होते; क्योंकि, उत्पन्न होने पर उनके जीवित रहनेका काल नहीं रहता, इसलिए बादर निगोद जीव यहांसे क्षीणकषायके अन्तिम समय तक केवल मरते ही हैं। यहां क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियां हैं जो कि पृथक् पृथक् असंख्यात लोकप्रमाण निगोद शरीरोंसे आपूर्ण हैं उनमें स्थित अनन्तानन्त निगोद जीवोंके जो अनन्तानन्त विस्रसोपचयसे युक्त कर्म और नोकर्म संघात है वह सबसे जघन्य बादर निगोद द्रव्यवर्गणा है। __ अब इस बादर निगोद द्रव्यवर्गणाके स्थानोंका कथन करते हैं । यथा- यहां अनन्तानन्त जीवोंके अपने विस्रसोपचयके साथ औदारिकशरीर परमाणुपुंजको पृथक् स्थापित करके पुनः उन्हीं सब जीवोंके अपने विस्रसोपचय सहित तैजसशरीर परमाणु- पुञ्जको और अपने विस्रसोपचय सहित कार्मणशरीर परमाणुपुञ्जको पृथक् स्थापित कर इन छह पुञ्जोंके ऊपर परमाणुओंकी वृद्धि कर स्थानोंकी उत्पत्तिका कथन करते है-- ४ ता० प्रती जीवणियमकालाभावादो' इति पाठः। प्रतिषु ' सुवा' इति पाठः । * ता० प्रती ' असंखे०भागमेत्ता पुलवियासु ' इति पाठः । अ. का. प्रत्यो: '-सहिदा कम्मणो कम्मसंघाओ ' इति पाठः 1. प्रतिषु ' सव्वेहि ' इति पाठः। ता० प्रती 'ट्ठाविय' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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