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________________ ९२ ) arastra वग्गणा-खंड ( ५, ६, ९३. अण्णो जीवो खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण एगविस्तसुवचएण ओरालियसरीरपुंज मन्महियं काऊण खीणकसायचरिमसमए द्विदो । एवमण्णम पुनरुत्तट्ठाण होदि; अनंतर हेट्ठिमट्ठाणादो एत्य परमाणुत्तरत्तुवलंभ/दो । पुणो अण्णो जीवो खविदकम्मं सियलक्खणे णागतूण खोणकसायचरिमसमए दोहि विस्ससुवचयपरमाणू हि ओरालियस रविस्स सुवचयपुंज मन्भहियं काऊणच्छिदो तदो तमण्णं तदियमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । पुणो तीहि विस्तसुवचय परमाणूहि ओरालियसरीरविस्स सुवचयपुंजमभहियं काऊण खीणकसायचरिमसमए अच्छिदो ताधे चउत्थमपुणरुत्तट्ठाणमुपज्जदि । पुणो चदुहि विस्ससुवचएहि परमाणूहि ओरालियसरी रविस्स सुवचयपुंजमब्भ हियं काऊ अण्णो जीवो खोणकसायचरिमसमयम्हि द्विदो ताधे पंचमम पुणरुत्तद्वाणमुप्पज्जदि । एवमेगेगपरमाणुत्तरकमेण ताव द्वाणाणि उप्पादेदव्वाणि जाव खीणकसायच - रिमसमयहि सव्वजीवेहि अनंतगुणमेत्ता ओरालियविस्ससुवचयपरमाणू वड्डिदा ति । पुणो अण्णो जीवो खविदकम्मं सियलक्खणेणागंतूण जहण्णदव्वस्सुवरि एगोरालियपरमाणुमोरालिय सरीरपुंजहि वड्डाविय पुणो ओरालियसरीर विस्ससुवचयपरमाणुपमाणविस्सुवचयंपुंजं वड्डाविय खोणकसायचरिमसमए द्विदो ताधे अण्णमपुण एक अन्य जीव लो जो क्षपित कर्माशिक विधिसे आकर एक विस्रसोपचय परमाणु से औदारिकशरीर के पुञ्जको अधिक करके क्षीणकषायके अन्तिम समय में स्थित है तो इसके यह अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है; क्योंकि, अनन्तर पूर्व के स्थान से यहां एक परमाणु अधिक उपलब्ध होता है । पुनः एक अन्य जीव लो जो क्षपित कर्माशिक विधिसे आकर क्षीणकषायके अन्तिम समय में दो विस्रसोपचय परमाणुओंसे औदारिकशरोर विस्रसोपचय पुञ्जको अधिक करके स्थित है तब उसके यह अन्य तीसरा अपुनरुक्त स्थान होता है । पुनः एक अन्य जीव तीन विस्रसोपचय परमाणुओं से औदारिकशरीर विस्र सोपचय पुञ्जको अधिक करके क्षीणकषायके अन्तिम समय में स्थित है उसके तब चौथा अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है । पुनः चार विस्रसोपचय परमाणुओं से औदारिकशरीर विस्रसोपचय पुञ्जको अधिक करके जो अन्य जीव क्षीणकषाय के अन्तिम समय में स्थित है उसके तब पाँचवां अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक परमाणुको बढाते हुए क्षीणकषायके अन्तिम समय में सब जीवोंसे अनन्तगुणे औदारिकशरीर विस्रसोपचय परमाणुओंकी वृद्धि होने तक स्थान उत्पन्न करने चाहिए । पुनः एक अन्य जीव लो जो क्षपित कर्माशिक विधिसे आकर जघन्य द्रव्यके ऊपर औदारिकशरीर पुञ्ज में एक औदारिकशरीर परमाणुको बढाकर पुनः औदारिकशरीर विस्रसोपचय परमाणुप्रमाण विस्रसोपचयपुञ्जको बढाकर क्षीणकषायके अन्तिम समयमें स्थित है उसके तब अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है; क्योंकि, जीवोंसे अनन्तगुणे औदारिकशरीर ता० प्रती ' सव्वजीवेहि अनंतगुणमेता । ओरालियविस्सुवचयपरमाणुभोरा लि सरीरपुंजन्हि 'इति पाठ 1 क० प्रती ' पुणो ओरालियसरी रविस्सुवचयपुंजम्हि पुण्ववड्ढाविदो ओरालियसरी रविस्ससुव - परमाणुपमा विस्सुवचयपुंजम्मि वड्डाविय आ० का० प्रत्योः पुणो ओगलियसरी रविस्ससुवचयपरमाणुपमा विस्सुवचयपुंजम्मि पुव्वं वड्डाविदो ओरालिय० वड्डाविय' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only " www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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