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________________ ४२२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ४७५ होदि । एवं भागहारो जाणिदूण परूवेयन्वो जाव कम्मढिदिचरिमसमओ ति । एवं भागहारपरूवणा गदा। तेजइयसरीरस्त छावद्विसागरोवमसंचिदसव्वदम्वे समयपबद्धपमाणेण कदे दिवगणहाणिमेत्तसमयपबद्धा होति । एवमुक्कस्सपदेसपरूवणा समत्ता। तव्वदिरित्तमणुक्कस्सं ॥ ४७५॥ एत्थ ओकडणं बंधं च अस्तिदूण अणंताणमणक्कस्सटाणाणं परूवणा कायया । उक्कस्सपदेण कम्मइयसरीरस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं कस्स ॥४७६॥ सुगमं । जो जीवो बादरपुढविजीवेसु बेहि सागरोवमसहस्सेहि सादिरेगेहि ऊणियं कम्मट्ठिदिमच्छिदो ।। ४७७ ॥ जहा वेदणाए वेदणीयं तहा यव्वं ।। ४७८ ॥ जहा वेयणदव्वविहाणेण साणित्तपरूवणा कदा तहा एत्थ वि णिरवसेसा कायव्वा, विसेसाभावादो*। एवं पंचण्णं सरीराणं उक्कस्सं सामित्तं समत्तं। उत्पन्न होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार नोकर्मस्थितिके अन्तिम समय तक भागहारका जानकर कथन करना चाहिए। इस प्रकार भागहार प्ररूपणा समाप्त हुई । तैजसशरीरके छयासठ सागरके भीतर संचित हुए सब द्रव्यको समयप्रबद्धके प्रमाणसे करने पर डेढ गुणहानि मात्र समयप्रबद्ध होते हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशप्ररूपणा समाप्त हुई। उससे तद्वयतिरिक्त अनुत्कृष्ट प्रदेशान है ।। ४७५ ॥ यहाँ पर उत्कर्षण और बन्धका आश्रय लेकर अनन्त अनुत्कृष्ट स्थानोंका कथन करना चाहिए। उत्कृष्ट पदको अपेक्षा कार्मणशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी कौन है ।४७६। यह सूत्र सुगम है। जो जीव बादर पृथिवी जीवोंमें दो हजार सागर कम कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहा है वह कार्मणशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी है ।। ४७७ ।। यहाँ शेष वेदनामें वेदनीयका जिस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व कहा है उस प्रकार जानना चाहिए ॥ ४७८ ।। जिस प्रकार वेदनद्रव्यविधानकी अपेक्षा स्वामित्वका कथन किया है उस प्रकार यहां पर समग्र कथन करना चाहिए, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है । इस प्रकार पाँच शरीरोंके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन समाप्त हुआ। ४ ता० प्रती ' मणक्कस्साण ( ट्राणाणं ) ' इति पाठ।। * अ० प्रती ‘णिरवसेसा विसेसाभावादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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