SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, २३५ है और जिस क्षेत्रमें वह है वहाँ उसका परिहार होना सम्भव नहीं होता या जब किसी तीर्थकरको निष्क्रमण आदि कल्याणककी प्राप्ति होती है और देवादिके आने जानेसे इसकी सूचना मिलने पर वह प्रमत्तसंयत जीव वन्दनाके लिए जाना चाहता है या इसी प्रकारका अन्य कारण मिलने पर वह प्रमत्तसंयत जीव आहारक ऋद्धिके सद्भावमें आहारकशरीर नामकर्मके उदयसे औदारिक शरीरसे भिन्न आहारकशरीरको उत्पन्न करता है और वह आहारकशरीर उक्त प्रयोजनकी पूर्ति कर विघटित हो जाता है । जिस समय आहारकशरीर उत्पन्न होकर अपना कार्य करता है उस समय औदारिकशरीर नामकर्मका उदय नहीं रहता और औदारिक काययोग भी नहीं होता । उतने काल तक औदारिकशरीर बना अवश्य रहता है और पूरी तरहसे जीवका उससे सम्बन्ध विच्छेद भी नहीं होता पर क्रियाका प्रयोजक वह नहीं होता । इस प्रकार ऐसे जीवके औदारिक, आहारक, तेजस और कार्मण ये चार शरीर होते हैं। चार शरीरोंकी प्राप्तिका दूसरा प्रकार यह है कि पर्याप्त अग्निकायिक और पर्याप्त वायुकायिक जीव तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच और मनुष्य औदारिकशरीरके रहते हुए भी विक्रिया करते हैं। इनके वैक्रियिकशरीर नामकर्मका उदय न होकर औदारिकशरीरको ही यद्यपि यह विशेषता होती है फिर भी विक्रिया रूप गुणको देखकर इसकी वैक्रियिकशरीर संज्ञा है। साथ ही यह ऐसे ही जीवके होता है जिसके वैक्रियिकशरीर चतुष्ककी सत्ता होती है। श्वेताम्बर कर्मसाहित्यमें तो उस समय वैक्रियिकशरीर चतुष्कका उदय तक माना गया है । इस प्रकार इन जोवोंके औदारिक, वैक्रियिक, तेजस और कार्मण ये चार शरीर बन जाते हैं । पाँच शरीर किसी एक के सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, वैक्रियिक और आहारकशरीरकी प्राप्ति एक साथ नहीं होती। इस प्रकार गति आदि मार्गणाओंमें किस प्रकार किस मार्गणा में कितने शरीर होते हैं यह घटित कर लेना चाहिए। यहाँ एक विशेष बातका निर्देश करना है वह यह कि केवली जिन केवलिसमुद्घातके समय तीन समय तक अनाहारक होते हैं और अयोगिकेवली भी अनाहारक होते हैं फिर भी उनके औदारिक, तैजस और कार्मण ये तीन शरीर उपलब्ध होते हैं । कारण स्पष्ट है। आठ अनुयोगद्वारोंके अन्तमें सब विशेषताओंका संक्षेपमें ज्ञान करानेके अभिप्रायसे इतना निर्देश किया है। इस प्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होनेपर शरीरिशरीरप्ररूपणा नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy