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________________ ३१८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, २३३ असण्णी ओघं ।। २३३ ॥ सुगममेदं। आहाराणुवावेण आहारएस ओरालियकायजोगिभंगो ॥ २३४॥ सम्वत्थोवा चदुसरीरा । तिसरीरा अणंतगणा इच्चेदेहि भेदाभावादो । अणाहारा कम्मइयकायजोगिभंगो ॥ २३५ ।। सव्वत्थोवा तिसरीरा । विसरीरा अणंतगुणा इच्चेदेहि भेदाभावादो। एवमप्पाबहुए समत्ते सरोरिसरीरपरूवणा त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । असंज्ञियोंमें ओघके समान भंग है ॥२३३॥ यह सूत्र सुगम है। आहारमार्गणाके अनुवावसे आहारक जीवोंमें औदारिककाययोगी जीवोंके समान भंग है ॥२३४॥ क्योंकि, चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे तीन शरीरवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इस प्रकार इस अल्पबहुत्वकी अपेक्षा औदारिककाययोगियोंसे आहारक जीवों में कोई भेद नहीं है। अनाहारक जीवोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भंग है ॥२३५।। क्योंकि, तीन शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इस प्रकार इस अल्पबहुत्वकी अपेक्षा कार्मणकाययोगी जीवोंसे अनाहारक जीवोंमें कोई विशेषार्थ- बाह्य वर्गणाके मुख्य भेद चार हैं- शरीरिशरीरप्ररूपणा, शरीरप्ररूपणा, शरीरविस्रसोपचयप्ररूपणा और विस्रसोपचयप्ररूपणा । साधारणतः संसारी जीवोंके कुल पाँच शरीर होते हैं। उनका जीवोंके साथ कथन करना कि किस जीवके किस अपेक्षासे कितने शरीर होते हैं इसे शरीरिशरीरमरूपणा कहते हैं। यहां इसी अनुयोगद्वारका सत्, संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर विवेचन किया गया है । साधारणतः यहाँ यही बात बीजरूपमें बतलानी है कि ये पाँच शरीर किस नियम के साथ कितने होते हैं । यह तो सामान्य नियम है कि सब संसारी जीवोंके तैजसशरीर और कार्मणशरीर निरन्तर बना रहता है। इन दो शरीरोंका अयोगिकेवलिके अन्तिम समय तक अभाव नहीं होता। इसका अर्थ यह नहीं कि अनादि काल पहले जीवके साथ जिस तैजस और कार्मणशरीरका सम्बन्ध था उसीका आज भी सम्बन्ध बना हुआ है । अभिप्राय यह है कि बन्धसन्ततिका विच्छेद न होनेसे इन दोनों शरीरोंका संसारमें कभी अभाव नहीं होता । अब शेष रहे तीन शरीर-औदारिकशरीर वैक्रियिकशरीर आहारकशरीर सो ये किसके और कबसे होते हैं इस बातका पहले यहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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