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________________ ( २८९ ५, ६, १६७ बंणाणुयोगद्दारे सरी रिसरीरपरूवणाए अंतरपरूवणा आरणच्चददेवेसु छम्मासा णवगेवज्जदेवेसु बारसमासा नवअणुदिस - चत्तारिअणुत्तरविमाणवासियदेवेसु वासपुधत्तं सव्वट्ठे पलिदोवमस्स संखे० भागो । एगजीवं प० णत्थि अंतरं । तिसरीराणमंतरं णाणेगजीवे पडुच्च उभयदो वि णत्थि अंतरं निरंतरं । इंदियाणुवादेण एइंदिया ओघं । णवरि चदुसरीराणं एगजीगं पड़च्च उक्कस्सेण पलिदो० असंखे० मागो, वेडव्वियसंतकम्मियाणं चेव उत्तरसरीर विउठवणणियमदंसणादो | बादरेइंदिय० बिसरीराणमंतरं केवचिरं का० होदि ? णाणाजी० प० णत्थि अंतरं निरंतरं । एगजीगं प० जह० खूद्दाभवग्गहणं बिसमऊणं, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो अस्संखेज्जाओ ओसप्पिणि उस्सप्पिणीओ तिसरीरा ओघं । चदुसरीराण I चार माह, आरण और अच्युतके देवोंमें छह माह, नो ग्रैवेयकके देवोंमें बारह माह, नो अनुदिश और चार अनुत्तरविमानवासी देवों में वर्षपृथक्त्व और सर्वार्थसिद्धिमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । तीन शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवों और एक जीवकी अपेक्षा दोनों प्रकारसे अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है । विशेषार्थ -- षट्खण्डागम कृतिअनुयोगद्वार में अन्तरप्ररूपणाके समय भी देवों और उनके अवान्तर भेदों में इस अन्तरकालका निर्देश किया है पर वहाँ भवन्त्रिकके अडतालीस मुहूर्त सौधर्मादिकमें एक पक्ष, सनत्कुमारद्विकमें एक माह ब्रह्मोत्तर आदि चारमें दो महिना, शुक्र आदिचार में चार महिना, आनत आदि चारमें छह महिना, नौ ग्रैवेयकोंमें बारह महिना अनुदिशों और अनुत्तरविमानों में वर्षपृथक्त्व और सर्वार्थसिद्धि में पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर कहा है । यहाँ कहे गये अन्तरसे उसमें कहीं कहीं फरक आता है सो जानकर इसका निर्णय करना चाहिए। यह सम्भव है कि इस विषय में दो उपदेश मिलते हो और उनमें से एकका संकलन वहां किया हो और दूसरेका यहां । जो भी हो, हमें यहां सब प्रतियोंमें यह पाठ मिला है, इसलिए उसे वैसा ही रखा है । इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि चार शरीरवालों का एक जीवको अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, वैक्रियिकसत्कर्मवालोंके ही उत्तर शरीरकी विक्रियाका नियम देखा जाता है । बादर एकेन्द्रियों में दो शरीरवालोंका अन्तरकाल कितना है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, निरन्तर है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर दो समय कम क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं जो असंख्यात अवसर्पिणी- उत्सविणके बराबर है। तीन शरीरवालोंका भंग ओघ के समान है । चार शरीरवालोंका अन्तर उक्कस्सेण भवणवासिय वाणवेंतर- जो दिसियाणं पादेक्कं अदालीस महुत्ता | सोहम्मीसाणे पक्खो 1 सणक्कुमार- माहिंदे मासो ' ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर-लांतब-काविले वेमासा | सुक्क महासुक्क-सदार सहस्सारम्मि चत्तारिमासा | आणद- पाणद-आरणच्चदेसु छम्मासा | णवगेवज्जेसु बारसमासा | अणुदिसादि जाव अवइदति वासधत्तं । सब्बट्ठे पलिदोवमस्स असखेज्जदिभागो। ष० खं, पु० ९, पृ० ४०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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