SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 259
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ ) छवखंडागमे वग्गणा-खंड (५, ६, १२१. तत्थ इमं साहारणलक्खणं भणिदं ॥ १२१॥ किम लक्खणपरूवणा कीरदे? ण, लक्खणभेदेण विणा सरीरिसरीराणं भेदो णत्थि त्ति तब्भेदपरूवण तदुत्तीदो। पत्तेयसरीरस्स किण्ण लक्खणं भणिदं ? ण, साहारणसरीरस्स लक्खणे कहिदे संते तश्विवरीयलक्खणं पत्तेयसरीरमिदि उवदेसेण विणा तल्लक्खणावगमादो* । साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहण च । साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणिदं ॥ १२२ ॥ एदाए सुत्तगाहाए सरीरि-सरीणाणं दोण्हं पि लक्खणं परूविदं, एगलक्खणावगमेण इयरस्स वि लक्खणावगमादो । सरीरपाओग्गपोग्गलक्खंधगहणमाहारो। सो साहारणं सामण्णं होदि । साहारणमिदि णवंसलिंगणिद्देसो कथं कदो? किरियाविसेसेण भावेण । एगजीवे आहारिदे सव्वजोधा आहारिदा त्ति भणिदं होदि, अण्णहा साहारणत्ताणुववत्तीदो। आणो उस्सासो, अवाणो णिस्सासो। तेसिमाणावाणाणं वहाँ साधारणका यह लक्षण कहा है ॥ १२१॥ शंका- लक्षणका कथन किसलिए किया जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, लक्षणके भेदके बिना शरीरी और शरीरोंका भेद नहीं हो सकता, इसलिए उनके भेदोंका कथन करने के लिए लक्षणके भेदका कथन किया है। शंका- प्रत्येकशरीरका लक्षण क्यों नहीं कहा है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, साधारणशरीरका लक्षण कह देने पर उससे विपरीत लक्षणवाला प्रत्येकशरीर है इस प्रकार उपदेशके बिना उसके लक्षणका ज्ञान हो जाता है। साधारण आहार और साधारण उच्छवास-निःश्वासका ग्रहण यह साधारण जीवोंका साधारण लक्षण कहा गया है ॥ १२२॥ इस सूत्रगाथा द्वारा शरीरी और शरीर दोनोंका ही लक्षण कहा गया है, क्योंकि, एकके लक्षणका ज्ञान होने पर दूसरेके लक्षणका भी ज्ञान हो जाता है। शरीरके योग्य पुद्गलस्कन्धोंका ग्रहण करना आहार कहलाता है । वह साधारण अर्थात् सामान्य होता है। शंका- सूत्रगाथा में 'साहारणं' इस प्रकार नपुंसकलिंगका निर्देश किसलिए किया है? समाधान- क्रिया विशेषरूप भावके दिखलाने के लिए नपुंसकलिंगका निर्देश किया है। एक जीवके आहार करने पर सब जीवोंका आहार हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, अन्यथा उसका साधारणपना नहीं बन सकता है। 'आण' शब्दका अर्थ उच्छ्वास है और 'अपाण' शब्दका अर्थ निःश्वास है। उन आना * ता०प्रतो तण्ण (त्थ ) इमं अ० प्रती 'तण्ण इमं ' इति पाठः। * अप्रती 'तल्लक्खेणा वगमादो' इति पाठः। ॐ आ० प्रतौ 'सुत्त गाहाए सरीराणं का०प्रतौं 'सुत्तगाहाए सरीरसरीराणं' इति पाठः । ताका प्रत्यो: 'अपाणो' इति पाठः।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy