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________________ ५, ६, १२२) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणा ( २२७ गहणमयाणं सव्वजीवाणं साहारणं सामण्णं । केसि जीवाणं सामण्णं ति® भणिदे साहारणजीवाणं । के साहारणजीवा ? एगसरीरणिवासिणो । अण्णसरीरणिवासिणं अण्णसरीरट्टिएहि साहारणतं गत्थि, एगसरीरावासजणिदपच्चासत्तीए अभावादो । एदस्स भावत्थो- सव्वजहण्णण पज्जत्तिकालेण जदि पुव्वुप्पण्णणिगोदजीवा सरीरपज्जत्ति-इंदियपज्जत्ति-आहार-आणापाणपज्जत्तीहि पज्जत्तयदा होति । तम्हि सरीरे तेहि समुप्पण्णमंदजोगिणिगोदजीवा वि तेणेव कालेण एदाओ पज्जत्तीओ समाणेति, अण्णहा आहारगहणादीणं* साहारणत्ताणुधवत्तीदो । जदि दीहकालेण पढममुप्पण्णजीवा चत्तारि पज्जत्तीओ समाणेति तो तम्हि सरीरे पच्छा उप्पण्णजीवा तेणेव कालेण ताओ पज्जत्तीओ समाणेति त्ति भणिदं होदि । कथमेगेण जीवेण गहिदो आहारो तक्काले तत्थ अणंताणं जीवाणं जायदे? ण, तेणाहारेण जणिदसत्तीए पच्छा उप्पण्णजीवाणं उप्पण्णपढमसमए चेव उवलंभादो। जदि एवं तो आहारो साहारणो होदि आहारजणिदसत्ती साहारणे त्ति वत्तव्वं ? ण एस दोसो, कज्जे कारणोवयारेण आहारजणिदसत्तीए वि आहारववएससिद्धीदो । सरीरिदियपज्जत्तीणं साहारणतं पानका ग्रहण अर्थात् उपादान सब जीवोंके साधारण है अर्थात् सामान्य है । किन जीवोंके साधारण है ऐसा पूछनेपर गाथासूत्र में 'साधारण जीवोंके' ऐसा कहा है। शंका- साधारण जीव कौन हैं । समाधान- एक शरीरमें निवास करनेवाले जीव साधारण हैं । अन्य शरीरोंमें निवास करनेवाले जीवोंके उससे भिन्न शरीरोंमें निवास करनेवाले जीवोंके साथ साधारणपना नहीं है, क्योंकि, उनमें एक शरीरके आवाससे उत्पन्न हुई प्रत्यासत्तिका अभाव है। इसका अभिप्राय यह है-सबसे जघन्य पर्याप्ति कालकेद्वारा यदि पहले उत्पन्न हुए निगोद जीव शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, आहाराप्ति और उच्छ्वासनिःश्वासपर्याप्तिसे पर्याप्त होते है तो उसी शरीरमें उनके साथ उत्पन्न हुए मन्द योगवाले निगोद जीवभी उसी कालके द्वारा इन पर्याप्तियोंको पूरा करते हैं, अन्यथा आहारग्रहण आदिका साधारणपना नहीं बन सकता है। यदि दीर्घकालकेद्वारा पहले उत्पन्न हुए जीव चारों पर्याप्तियोंको प्राप्त करते हैं तो उसी शरीरमें पीछेसे उत्पन्न हुए जीव उसी कालकेद्वारा उन पर्याप्तियोंको पूरा करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका- एक जीवकेद्वारा ग्रहण किया गया आहार उस कालमें वहां अनन्त जीवोंका कैसे हो सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उस आहारसे उत्पन्न हुई शक्तिका बादमें उत्पन्न हुए जीवोंके उत्पन्न होनेके प्रथम समय में हो ग्रहण हो जाता है । शंका-- यदि ऐसा है तो 'आहार साधारण है' इसके स्थानमें 'आहारजनित शक्ति साधारण है' ऐसा कहना चाहिए ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कार्य में कारणका उपचार कर लेनेसे आहारजनित शक्तिके भी आहार संज्ञा सिद्ध होता है। म०प्रतिपाठोऽयम् । ता०प्रतौ 'सामण्णेत्ति' अ०का०प्रत्यो: 'सामण्णा त्ति' इति पाठः । * आ०प्रतौ 'अण्णहारगहण्णादीणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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