________________
२२८) छखंडागमे वगणा-खंड
( ५, ६, १२३ किण्ण परूविदं ? ण, आहाराणावाणणिद्देसो देसामासियो ति तेसि पि एत्थेव अंतब्भावादो । एवमेदं साहारणलक्खणं भणिदं । संपहि एदीए गाहाए भणिदत्थस्सेव दढीकरण? उत्तरगाहा भणदि -
एयस्स अणुग्गहणं बहूण साहारणाणमेयस्स । एयस्स जं बहूणं समासदो तं पि होदि एयस्स ॥ १२३॥
एयस्स णिगोदजीवस्स अणग्गहणं पज्जत्तिणिप्पायण परमाणपोग्गलग्गहणं णिप्पण्णसरीरस्स जं परमाणपोग्गलग्गहणं वा तं बहणं साहारणाणं वहणं साहारणजीवाणं तत्र शरीरे तस्मिन् काले सतामसतां च भवति । कुदो ? तेणाहारेण जणिदसत्तीए तत्थतणसव्वजीवेसु अक्कमेणुवलंभादो, तेहि परमाणूहि णिप्फण्णसरीरावयवफलस्स सव्वजीवेसु उवलंभादो वा । जदि एगजीवम्हि जोगेणागदपरमाणुपोग्गला तस्सरीरमहिट्रिदाणं अण्णजीवाणं चेव होंति तो तस्स जोगिल्लजीवस्स तमणग्गहणं ण होदि, अण्णसंबंधित्तादो त्ति भणिदे परिहारं भणदि- एयरस एदस्स वि जीवस्स जोगवंतस्स तमणुग्गहणं होदि । कुदो ? तप्फलस्स एत्थ वि उवलंभादो । कथमेगेण
शंका- शरीरपर्याप्ति और इन्द्रियपर्याप्ति ये सबसे साधारण हैं ऐसा क्यों नहीं कहा ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, गाथासूत्र में 'आहार' और 'आनापान' पदका ग्रहण देशामर्षक है, इसलिये उनका भी इन्हीं में अन्तर्भाव हो जाता है ।
इस प्रकार यह साधारण लक्षण कहा है । अब इस गाथाद्वारा कहे गये अर्थ को ही दृढ़ करने के लिए आगेकी गाथा कहते हैं
___ एक जीवका जो अनुग्रहण अर्थात् उपकार है वह बहुत साधारण जीवोंका है और इसका भी है । तथा बहुत जीवोंका जो अनुग्रहण है वह मिलकर इस विवक्षित जीवका भी है ॥ १२३ ॥
___ एक निगोद जीवका अनुग्रहण अर्थात् पर्याप्तियोंको उत्पन्न करनेके लिए जो परमाणु पुद्गलोंका ग्रहण है या निष्पन्न हुए शरीरके जो परमाणु पुद्गलोंका ग्रहण है वह 'बहूणं साहारणाण' अर्थात् उस शरीरमें उस काल में रहनेवाले और नहीं रहनेवाले बहुत साधारण जीवोंका होता है, क्योंकि, उस आहारसे उत्पन्न हुई शक्ति वहाँके सब जीवोंमें युगपत् उपलब्ध होती है। अथवा उन परमाणुओंसे निष्पन्न हुए शरीरके अवयवोंका फल सब जीवोंमे उपलब्ध होता है।
शका- यदि एक जीवमें योगसे आये हुए परमाणु पुद्गल उस शरीरमें रहनेवाले अन्य जीवोंके ही होते हैं तो योगवाले उस जीवका वह अनुग्रहण नहीं हो सकता, क्योंकि, उसका सम्बन्ध अन्य जीवोंके साथ पाया जाता है ?
समाधान- अब इस शंकाका परिहार करते हैं- इस एक योगवाले जीवका भी वह अनुग्रहण होता है, क्योंकि, उसका फल इस जीव में भी उपलब्ध होता है। @ म०प्रति गठोऽयम् । प्रतिषु 'अण्णसंबंधत्तादो' इति पाठः ।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org