SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० ) छवखंडागमे वग्गणा-खंड (५, ६, ९८. आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता चेव । तदो जवमज्ज्ञपरूवणाए भणिदुवदेसो पहाणो तिघेत्तव्वो । अजहण्णमणुक्कस्स बादरणिगोदवग्गणाओ वट्टमाणकाले असंखेज्जलोगमेत्ताओ लब्भंति । सव्वजहण्णा सुहुमणिगोदसरिसधणियवग्गणाओ जले थले आगा वा आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ होंति । उक्कस्सियाओ पुण सरिसधणियसुहुमfuगोदवग्गणाओ वट्टमाणकाले आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ होंतीओ महामच्छसरीरेषु दिस्सति । अजहण्णमणुक्कस्स सुमणिगोदवग्गणाओ वट्टमाणकाले असंखेज्जलोग मेत्तीयो होंति । महाखंधदव्ववग्गणा पुण वट्टमाणकाले एया चेव महासंधो णाम । भवणविमाणट्ठपुढविमेरुकुलसे लादीणमेगीभावो महाखंधो । असंखेज्जजोयणाणि अंतरिण द्विदाणं कथमेयतं ? ण, एयबंधणबद्धसुहुमेहि पोग्गलक्खंधेहि समवेदाणमंतराभावादो । एसा णाणासेडीए परूवणा कदा । एवं वग्गणापरूवणा समत्ता ( १ ) वग्गणाणिरुवणिदाए इमा एयपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्ववग्गणा णाम किं भेदेण किं संघादेण किं भेदसंवादेण ।। ९८ ।। एवं पुच्छासुतं । एत्थ 8 परमाणुग्गहणं कायव्वं; परमसुहुमत्ताविणाभाविएयपदेसियगहणेणेव तस्स सिद्धीदो ? ण एस दोसो; जेण सव्वाओ वग्गणाओ असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं । इसलिए यवमध्यप्ररूपणा में कहा गया उपदेश प्रधान है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । अजघन्य अनुत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणाऐं वर्तमान काल में असंख्यात लोकप्रमाण उपलब्ध होती हैं । सबसे जघन्य सूक्ष्मनिगोद सदृश धनवाली वर्गणाए जल, स्थल और आकाशमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं। परन्तु उत्कृष्ट सदृश धनवाली सूक्ष्मनिगोदवर्गणाऐं वर्तमान कालमें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हुई महामत्स्य के शरीर में दिखलाई देती हैं । अजघन्य अनुत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणाऐं वर्तमान काल में असंख्यात लोकप्रमाण होती हैं । परन्तु महास्कन्ध वर्गणा वर्तमान कालमें एक ही महास्कन्ध नामवाली होती है । शंका- असंख्यात योजनोंका अन्तर देकर स्थित हुए पुद्गलोंका एकत्व कैसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि एकबन्धनबद्ध सूक्ष्म पुद्गलस्कन्धोंसे समवेत पुद्गलोंका अन्तर नहीं पाया जाता । यह नानाश्रेणिकी अपेक्षा प्ररूपणा की । इस प्रकार वर्गणाप्ररूपणा समाप्त हुई । वर्गणानिरूपणाको अपेक्षा एकप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा क्या भेदसे होती है, क्या संघातसे होती है या क्या भेद - संघात से होती है ।। ९८ ।। यह पृच्छासूत्र है। शंका- यहाँ परमाणु पदका ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि परम सूक्ष्मत्व के अविनाभावी एकप्रदेशी पदके ग्रहणसे ही उसकी सिद्धि हो जाती है ? - ता० प्रती होंति (ती) अ० आ० का० प्रतिषुः 'होति' इति पाठः । ता० प्रती 'एत्थ तण ( एत्थ ताव ण) परमाणु- अ० आ० का० प्रतिषु एत्थतण परमाणु-' इति पाठ: । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy