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________________ ५, ६, ९७. ) बंधणाणुयोगद्दारे णाणासेडिवग्गणपरूवणा ( ११९ णिगोदवग्गणाओ खीणकसायचरिमसमए जहणियाओ चत्तारि उक्कस्सियाओ दोणि मज्झिमाओ अट्ठ लब्भंति । ओघुक्कस्सियाओ पुण मलयथहल्लयादिसु पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताओ लभंति । सव्वक्कस्सपत्तेयसरीरवग्गणाओ सरिसधणियाओ पलिदोव मस्स असंखेजदिभागमेत्तीयो । बादरणिगोदवग्गणाओ सव्वुक्कस्सियाओ जगपदरस् सअसंखेज्जविभागमेताओ होति त्ति जं भगिदं तमुवरि भण्णमाणजवमज्झपरूवणाए सह विरुज्झदे, तत्थ पत्तेयबादरसुहमणिगोदवग्गणाओ सरिसधणियाओ जहण्णण उक्कस्सेण य आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ चेव सव्वत्थ होंति त्ति परूविदत्तादो । एत्थ उवदेसं लदधुण णिण्णओ कायवो। महामच्छा सयंभूरमणसमद्दे वट्टमाणकाले जेण पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता दीसंति तेणक्कस्सबादरणिगोनवग्गणाए सरिसधणियवग्गणाओ पदरस्स असंखेजदिभागमेताओ होति ति? ण, सम्वमहामच्छे सु उकास्सबादरणिगोदवग्गणा होदि त्ति णियमाभावादो पदरस्त असंखेज्जदिभागमेत्तगणिदकम्मंसियाणमभावादो च । गुणिद. कम्मंसिया एगसमयम्हि उक्कस्सेण जेणावलियाए असंखेज्जदिमागमेत्ता चेव तेण सरिसधणियवग्गणाओ उक्कस्सट्टाणे आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ चेवे त्ति घेत्तव्वं । अभवसिद्धियपाओग्गजहणटाणे वि खविदकम्मंसियलक्खणेणागदजीवा प्राप्त होती हैं । बादरनिगोदवर्गणायें क्षीणकषायके अन्तिम समय में जघन्य चार, उत्कृष्ट दो और मध्यम आठ प्राप्त होती हैं । ओघ उत्कृष्ट बादर निगोदवर्गणाएं मलक, थूवर और लता आदिकमें जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होती हैं । सदृश धनवाली सबसे उत्कृष्ट प्रत्येकशरीर वर्गणायें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। सबसे उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणायें जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं ऐसा जो कहा है वह आगे कही जानेवाली यवमध्यप्ररूपणाके साथ विरोधको प्राप्त होता है, क्योंकि, वहां पर प्रत्येकशरीरवर्गणायें, बादरनिगोदवर्गणायें और सूक्ष्म निगोदवर्गणायें सर्वत्र जघन्य और उत्कृष्ट आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होती हैं ऐसा कथन किया है सो इस विषय में उपदेशको प्राप्त करके निर्णय करना चाहिए । __ शंका-- स्वयंभरमण समुद्र में वर्तमान काल में यतः जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण महामत्स्य दिखलाई देते हैं, अतः उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणाकी सदृश धनवाली वर्गणायें जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है ? ___ समाधान-नहीं, क्योंकि, सब महामत्स्योंमें उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा होती है ऐसा नियम नहीं है तथा जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणितकौशिक जीवोंका अभाव है, इसलिए भी जगप्रतरके असंख्यातवें भागप्रमाग उत्कृष्ट बादर निगोद वर्गणायें नहीं हो सकतीं। यतः एक समयमें गुणितकौशिक जीव उत्कृष्टरूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं अत: उत्कृष्ट सदृश धनवाली वर्गणायें आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण ही होती हैं ऐसा यहां ग्रहण करना चाहए। अभव्यप्रायोग्य जघन्य स्थान में भी क्षपितकर्माशिक लक्षणसे आये हुए जीव आवलिके ... Jain Education International For Private & Personal use oni www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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