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________________ ५, ६, १३६ ) बंधाणुयोगद्दारे सरीरसरीरपरूवणा ( २३९ मूलोघे असरीरा अस्थि, एत्थ ते णत्थि, तेण ओघत्तं ण जुज्जदे ? असरीराणमभावस्स उवदेसेण विणा अवगम्ममाणत्तादो । अटुकम्मकवचादो णिग्गया असरोरा णाम । असेसकम्मुदयाविणाभावितिरिक्खगइणामकम्मोदइल्ला तिरिक्खा णाम । वसाभावे तिरिक्खेसु असरीराभावो सिद्धो त्ति ओघणिसो कदो । पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्ता अस्थि जीवा बिसरीरा तिसरीरा ।। १३५ ॥ farगहगदीए बिसरीरा चेव, तत्थ ओरालियसरीरस्स उदयाभावादो, तेजाकम्मइयसरीराणं संसारे सव्वत्थ उदयवोच्छेदाभावादो । सरीरगहिदपढमसमय पहुडि तिसरीरा चेव, तत्थ ओरालिय-तेजा-क्रम्मइयाणं उदयदंसणादो । चदुसरीरा पुण णत्थि, सेसतिरिक्खाणं व विजब्वणसत्तीए अभावादो मनुस्सेसु व तिरिक्खेसु आहारसरीराभावादो च । मणुस दीए मणुस प्रणुसपज्जत्त मणुसिणीसु ओघं ॥ १३६ ॥ एत्थ असरीराणमभावो तिरिक्खेसु व परूवेदव्वो । सेसं सुगमं । पन्चेन्द्रियतिर्यश्च योनिनी जीवों में ओघके समान भंग है ॥ १३४॥ शंका- मूलोघ में अशरीरी जीव हैं ऐसा कहा है, परन्तु यहां पर वे नहीं हैं, इसलिए ओघपना नहीं बनता है ? समाधान- यहाँ पर अशरीरी जीवोंका अभाव उपदेशके बिना अवगम्यमान है । आठ कर्मरूपी कवचसे निकले हुए जीव अशरीरी होते हैं और समस्त कर्मोंके उदयके अविनाभावी तिर्यञ्चगति नामकर्म के उदयसे युक्त जीव तिर्यञ्च कहलाते हैं, इसलिये उपदेश के बिना भी तिर्यमें अशरीरी जीवोंका अभाव सिद्ध होता है, इसलिए वे ओघ के समान हैं ऐसा निर्देश किया है । पन्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त जीव दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले होते हैं ॥ १३५ ॥ विग्रहगति में दो शरीरवाले ही होते हैं, क्योंकि वहां पर औदारिक शरीरका उदय नहीं होता तथा तैजसशरीर और कार्मणशरीरकी संसार में सर्वत्र उदयव्युच्छित्ति नहीं है । ये शरीर ग्रहण करने के प्रथम समयसे लेकर तीन शरीरवाले ही होते हैं, क्योंकि वहां पर औदारिकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीरका उदय देखा जाता है । परन्तु चार शरीरवाले नहीं होते, क्योंकि, शेष तिर्यवों में जैमी विक्रिया करनेकी शक्ति है वैसी इनमें नहीं है । तथा मनुष्यों में जैसे आहारकशरीर होता है वैसे तिर्यञ्चोंमे नहीं होता । मनुष्यगतिकी अपेक्षा सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में ओघ के समान भंग है ॥ १३६ ॥ यहां अशरीरो जीवोंका अभाव तिर्यञ्चों के समान कहना चाहिए । शेष कथन सुगम है । ॐ ता०प्रतौ 'तिरिक्खेसु (व - ) परूवेदब्वो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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