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________________ ५, ६, २४१ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए णामणिरुत्ती शरीरस्य प्ररूपणा कृता । साम्प्रतमष्टकर्मकलापस्य कार्मणशरीरस्य लक्षणप्रतिपादकत्वेन सूत्रमिदं व्याख्यायते । तद्यथा- भविष्यत्सर्वकर्मणां प्ररोहणमत्पादकं त्रिकालगोचराशेषसुख-दुःखानां बीजं चेतिर अष्टकर्मकलापं कार्मणशरीरम् । कर्मणि भवं कार्मणं कम्मैव वा कार्मणमिति कार्मणशब्दव्युत्पत्तेः । एवं णामणिरुति ति समत्तमणयोगद्दारं । उनका सत्त्व नहीं होता। इस द्वारा नामकर्मके अवयवरूप कार्मणशरीरकी प्ररूपणा की है। अब आठों कर्मों के कलापरूप कार्मणशरीरके लक्षण के प्रतिपादकपनेकी अपेक्षा इस सूत्रका व्याख्यान करते हैं । यथा- आगामी सब कर्मोका प्ररोहण, उत्पादक और त्रिकाल विषयक समस्त सुखदुःखका बीज है इसलिए आठों कर्मों का समुदाय कार्मणशरीर है, क्योंकि, कर्ममें हुआ इसलिए कार्मण है, अथवा कर्म ही कार्मण है इस प्रकार यह कार्मण शब्दकी व्युत्पत्ति है। विशेषार्थ-- शब्दके व्युत्पत्तिलभ्य अर्थको निरुक्ति द्वारा प्रकट किया जाता है। यहाँ सर्व प्रथम पाँचों शरीरोंकी निरुक्ति दिखलाई गई है। यथा औदारिक शब्द उदार शब्दसे, वैक्रियिक शब्द विक्रिया शब्दसे, आहारक शब्द आहारसे, तैजस शब्द तेजससे और कार्मण शब्द कमसे बना है। उदार, उराल, महत् और स्थूल ये एकार्थवाची शब्द हैं। औदारिकशरीर अवगाहनाकी अपेक्षा अन्य शरीरोंसे बडा है प्रदेशोंकी अपेक्षा नहीं, इसलिए इसकी औदारिक संज्ञा है। यद्यपि सूक्ष्म एकेन्द्रियका औदारिकशरीरकी अवगाहनाकी अपेक्षा सूक्ष्म देखा जाता है फिर भी सब शरीरोंको ध्यान में लेकर विचार करने पर सबसे बडा यही शरीर सिद्ध होता है, इसलिए इसकी औदारिक संज्ञा है। अणिमा आदि जो आठ प्रकारकी ऋद्धियाँ हैं वे वैक्रियिकशरीरमें पाई जाती हैं। उनके कारण यह शरीर छोटा, बडा, हलका, भारी आदि विविध प्रकारकी विक्रिया करने में समर्थ होता है, इसलिए इस शरीरको वैक्रियिक कहते हैं। जो शरीर वैक्रियिकशरीर नामकर्मके उदयसे देवों और नारकियोंके होता है उसमें भी यह विशेषता पायी जाती है और जो शरीर मनुष्यों और तिर्यञ्चोंके विक्रिया रूप प्रयोगविशेष के कारण होता है उसमें भी यह विशेषता पाई जाती है। आहारकशरीरको प्राप्ति प्रमत्तसंयतके होती है। इसका यह अर्थ है कि यह शरीर अपने कारण कूटके अनुसार यदि होगा तो प्रमत्तसंयतके ही होगा, अन्यके नहीं । एक तो यह शरीर आहार द्रव्यमें से सुन्दर, सुगन्ध और स्निग्ध आदि गुणोंसे युक्त वर्गणाओंसे बनता है, इसलिए इसकी आहारक संज्ञा है। दूसरे यह अतिसूक्ष्म आदि गुणयुक्त अर्थको आहरण करने में अर्थात् जानने में समर्थ है, इसलिए इसको आहारक संजा है । तैजस शरीर दो प्रकारका होता है- निकलने वाला और नहीं निकलनेवाला। निकलने वाला तैजसशरीर शुभ और अशुभ दो प्रकारका होता है । यह दोनों प्रकारका तेजसशरीर संयतके होता है। तथा नहीं निकलने वाला तेजसशरीर भुक्त अन्नपान के पाचन में समर्थ होता है। यह तेज और प्रभा गुणसे युक्त होता है, इसलिए इसे तैजस कहते हैं। नामकर्मकी ९३ प्रकृतियों में एक कार्मणशरीर प्रकृति है। उसके उदयसे ज्ञानावरणादि कर्म कार्मण संज्ञाको प्राप्त होते हैं । अथवा य सब ज्ञानावरणादि कर्म ही हैं, इसलिए इनकी कार्मण संज्ञा है । इस प्रकार औदारिक आदि पाँच शरीर हैं। इनके ये ४ अ० प्रती '-दुखानां जीवं चेति' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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