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________________ ३२८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, २४१ तेजसं शरीरम् । तेजःप्रभागुणयक्तमिति यावत् । तं तेजइयसरीरं हिस्सरणप्पयमणिस्सरणप्पयं चेवि दुविहं । तत्थ जं तं हिस्सरणप्पयं तं दुविह-सुहमसुहं चेहि । संजदस्स उग्गचरित्तस्स दयापुरंगमअणकंपावरिवस्स इच्छाए दक्खिणांसावो हंससंखवण्णं हिस्सरिदूण मारीदिरमरवाहिवेयणादुब्भिक्खुवसग्गादिपसमणदुवारेण सम्वजीवाणं संजवस्स य ज सुहमुप्पादयदि तं सुहं णाम । कोधं गवस्स संजदस्स वामसादो वारहजोयणायामेण णवजोयणविक्खंभेण सूचिअंगुलस्स सखेज्जदिभागमेत्तबाहल्लेण जासवणकुसुमवण्णण णिस्सरिदूण सगक्खेत्तभंतरट्रियसत्तविणासं काऊण पुणो पविसमाणं तं जं चेव संजदमावरेदि * तमसुहं णाम । जं तमणिस्सरणप्पय तेजइयसरीरं तं भुत्तण्णपाणपाचयं होदूण अच्छदि अंतो।। सव्वकम्माणं परूहणुप्पादयं सुहदुक्खाणं बीजमिदि कम्मइयं ।२४१॥ कर्माणि प्ररोहन्ति अस्मिन्निति प्ररोहणं कार्मणशरीरम् । कूष्माण्डफलस्य वन्तवत सकलकाधारं कार्मणशरीरमिति यावत् । न केवलं सर्वकर्मोत्पत्तराधार एव किं तु सकलकर्मणामुत्पादकमपि कार्मणशरीर, तेन विना तदुत्पत्तेरभावात् । तत एव सुख-दुःखानां तद् बोजमपि, तेन विना तदसत्त्वाद् । एतेन नामकर्मावयवस्य रश्मिकलापका नाम प्रभा है। इसमें जो हुआ है वह तैजसशरीर है। तेज और प्रभा गुणसे युक्त तैजसशरीर है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वह तेजसशरीर निःसरणात्मक और अनि:सरणात्मक इस तरह दो प्रकारका है। उसमें जो निःसरणात्मक तेजसशरीर है वह दो प्रकारका है- शुभ और अशुभ । उग्र चारित्रवाले तथा दयापूर्वक अनुकम्पासे आपूरित संयतके इच्छा होनेपर दाहिने कंधेसे हंस और शखके वर्णवाला शरीर निकलकर मारी, दिरमर, व्याधि, वेदना, दुभिक्ष और उपसर्ग आदिके प्रशमनद्वारा सब जीवों और सयत के जो सुख उत्पन्न करता है वह शुभ कहलाता है । तथा क्रोधको प्राप्त हुए संयतके वाम कधसे बारह योजन लम्बा, नौ योजन चौडा और सूच्यंगलके सख्यातवें भागप्रमाण मोटा तथा जपाकुसुमके रंगवाला शरीर निकल कर अपने क्षत्रके भीतर स्थित हुए जीवोंका विनाश करके पुनः प्रवेश करते हए जो उसी सयतको व्याप्त करता है वह अशुभ तैजसशरीर है । जो अनिःसरणात्मक तैजसशरीर है वह भुक्त अन्न-पानका पाचक होकर भीतर स्थित रहता है। सब कर्मोका प्ररोहण अर्थात् आधार, उत्पादक और सुख-दुःखका बीज है इसलिए कार्मणशरीर है ।।२४१॥ ____ कर्म इस में उगते हैं इसलिए कामणशरीर प्ररोहण कहलाता है। कूष्मांडफलके वन्तके समान कार्मणशरीर सब कर्मोंका आधार है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। कार्मणशरीर केवल सब कर्मोकी उत्पत्तिका आधार ही नहीं है। किन्तु सब कर्मोका उत्पादक भी है, क्योंकि उसके बिना उनको उत्पत्ति नहीं होती। इसलिए वह सुखों और दुःखोंका भी बीज है, क्योंकि, उसके बिना * ता. प्रती · संजद मारेदि ' इति पाठः। * ता. प्रतो ' सरीर भतण्ण गणपच्चयं' का० प्रती -सरीरं तं भत्तण्णगणपचयं 'इति पाठ' J ता० प्रती 'वत्तपत ' इति पाठ: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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