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________________ ५, ६, २४६ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए समुक्कित्तणा ( ३३१ जहा ओरालियसरीरस्स परमाणपमाणं भणिदं तहा सेसचदुण्णं सरीराणं परमाणपमाणं वत्तव्वं, अभवसिद्धिएहितो अणंतगणतणेण सिद्धेहितो अणंतगणहोणत्तणेण भेदाभावादो । एवं पदेसपमाणाणुगमो समत्तमणयोगद्दारं । जिसेयपरूवणदाए तत्थ इमाणि छ अणुयोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति-समुक्कित्तणा पदेसपमाणाणुगमो अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा पदेसविरओ अप्पाबहुए ति ॥२४५॥ एदाणि छ चेव अणयोगद्दाराणि एत्थ होंति अण्णेसिमसंभवादो। एदेसि छण्हं पि जहाकमेण अणुयोगद्दाराणं परूवणा कीरदे समुक्कित्तणवाए ओरालिय-वेउन्विय-आहारसरीरिणा तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण ओरालिय-वेउन्वियआहारसरीरत्ताए जं पढमसमए पदेसग्गं गिसित्तं तं जीवे किंचि एगसमयमच्छदि किंचि बिसमयमच्छवि किचि तिसमयमच्छदि एवं जाव उक्कस्सेण तिणिपलिदोवमाणि तेत्तीससागरोवमाणि अंतोमहत्तं ॥२४६॥ जिस प्रकार औदारिकशरीरके परमाणुओंका प्रमाण कहा है उसी प्रकार शेष चार शरीरोंके परमाणुओंका प्रमाण कहना चाहिए, क्योंकि, अभव्योंसे अनन्तगुणत्व और सिद्धोंसे अनन्तगुणहीनत्वकी अपेक्षा औदारिकशरीरके परमाणुओंसे शेष चार शरीरोंके परमाणुओंमें कोई भेद नहीं है। इसप्रकार प्रदेशप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। __ निषेकप्ररूपणाको अपेक्षा वहां ये छह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य -हैं समुत्कीर्तना, प्रदेशप्रमाणानुगम, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा प्रदेशविरच और अल्पबहुत्व ॥ २४५ ।। यहाँ ये छह ही अनुयोगद्वार होते हैं, क्योंकि, अन्य अनुयोयगद्वार यहाँ सम्भव नहीं हैं। अब क्रमसे इन छहों अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं--- समत्कीर्तनाको अपेक्षा जो औदारिकशरीरवाला, वैक्रियिकशरीरवाला और आहारकशरीरवाला जीव है, प्रथम समयमें आहारक हुए और प्रथम समयमें तद्भवस्थ हए उसी जीवके द्वारा औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीररूपसे जो प्रदेशाग्न प्रथम समयमें बांधे गये हैं उनमेंसे कुछ प्रदेशाग्र जीवमें एक समय तक रहते हैं, कुछ दो समय तक रहते हैं, कुछ तीन समय तक रहते हैं । इस प्रकार क्रमसे उत्कृष्ट रूपसे तीन पल्य, तेतीस सागर और अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं ॥ २४६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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