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________________ ३३२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, २४६ एत्थ ताव ओरालियसरीरमस्सिदूण सुत्तत्थपरूवणं कस्सामो । तं जहा-- ओरालियसरीरमेदस्स अस्थि ति ओरालियसरीरी तेण ओरालियसरीरिणा । पढमसमए चेव आहारो सरीरपाओग्गपोग्गलगहणं जस्स सो पढमसमयआहारओ तेण पढमसमयआहारएण । पढमसमयओरालियसरीरिणा ति भणि होदि । तेणेव गहणं किमठें कोरवे ? ओरालियसरीरी चेव ओरालियसरीरस्स पदेसरचणं कुणदि ण अण्णसरीरिणो त्ति जाणावणठें। तम्हि भवे द्विदो ति तब्भवत्थो पढमसमओ च तब्भवत्थो च पढमसमयतब्भवत्थो तेण पढमसमयतब्भवत्थेण । अविग्गहगदीए उपपणेणे त्ति भणिदं होदि, अण्णहा पढमसमयतब्भवत्थस्स पढमसमय आहारयत्तविरोहादो। तेण जीवेण ओरालियसरीरत्ताए ओरालियसरीरसरूवेण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं पढमसमयबद्धपदेसग्गं त्ति भणिदं होदि। तं जीवे किंचि एगसमयमच्छदि, णोकम्मस्स आबाधाभावेण पढमसमए णिसित्तस्स बिदियसमए चेव परिसदणवलंभादो* । किमट्टमेत्थ णत्थि आबाधा ? साभावियादो । किंचि बिसमयमच्छ दि बिदियट्टिदीए णिसित्तस्स तदियसमए चेव अकम्मभावलंभादो। किचि तिसमयमच्छदि, तदियट्रिदीए मिसित्तस्स चउत्थसमए अकम्मपरिणामदंसणादो । एवं जाव __यहाँ सर्वप्रथम औदारिकशरीरका आश्रय लेकर सूत्रके अर्थका कथन करते हैं। यथाऔदारिकशरीर जिसके होता है वह औदारिकशरीरी कहलाता है, उस औदारिकशरीरके द्वारा । प्रथम समयमें ही आहार अर्थात् शरीरके योग्य पुद्गलोंका ग्रहण जिसके होता है वह प्रथम समयवर्ती आहारक कहलाता है, उस प्रथम समयवर्ती आहारके द्वारा । प्रथम समयवर्ती औदारिकशरीरवाले जीवके द्वारा यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-- सूत्र में तेणेव ' पदका ग्रहण किसलिए किया है ? समाधान--औदारिकशरीरवाला ही औदारिकशरीरकी प्रदेशरचना करता है अन्य शरीरवाले नहीं इस बात का ज्ञान कराने के लिए ' तेणेव ' पदका ग्रहण किया है। उस भवमें जो स्थित है वह तद्भवस्थ कहलाता है। प्रथम समयवर्ती जो तद्भवस्थ वह प्रथम समय में तद्भवस्थ है, उस प्रथम समयवाले तद्भवस्थके द्वारा । अविग्रहगतिसे उत्पन्न हुए जीवके द्वारा यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि, ऐसा नहीं मानने पर प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुए जीवका प्रथम समयमें आहारक होने में विरोव है। उस जीवके द्वारा 'ओरालियशरीरत्ताए अर्थात् औदारिकशरीररूपसे जो प्रथम समय प्रदेशाग्र निषिक्त किया है । अर्थात् प्रथम समयम जो प्रदेशाग्र बाँधा गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । वह जीवमें कुछ एक समय तक रहता है, क्योंकि, नोकर्मकी आबाधा नहीं होने से प्रथम समय में निषिक्त हुए प्रदेशाग्रका दूसरे समय में ही क्षय देखा जाता है। शंका--यहां आबाधा किस कारणसे नहीं है ? समाधान--क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। कुछ दो समय तक रहता है, क्योंकि, जो द्वितीय स्थितिमें निषिक्त हुआ है उसका तीसरे समयमें ही अकर्मपना देखा जाता है। कुछ तीन समय तक रहता है, क्योंकि, तृतीय स्थितिम *आ० प्रती ' परिसदाणवलंभादो ' इति पाठः ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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