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________________ ५, ६ २४६, ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए समुक्कित्तणा उक्कस्सेण किंचि तिणि पलिदोवमाणि अच्छदि, तदुवरिमसमए तस्स अकम्मभावदंसणादो। एवं वेउविवयसरीरस्स वि वत्तव्वं । णवरि तत्थ किचि तेत्तीसं सागरोवमाणि उक्कस्सेण अच्छदि त्ति वत्तव्वं । एवमाहारसरीरस्स वि समक्कित्तणा कायव्वा । णवरि एवं जाव उक्कस्सेण अंतोमहत्तमच्छदि त्ति वत्तवं । बिदियादिसमएसु वि एवं चेव पदेसरचणा कायव्वा । निषिक्त हुए प्रदेशाग्रका चतुर्थ समय में अकर्मरूप परिणाम देखा जाता है । इस प्रकार उत्कृष्टरूपसे कुछ तीन पल्य काल तक रहता है, क्योंकि, उससे अगले समयमें उसका अकर्मभाव देखा जाता है। इसी प्रकार वैक्रियिकशरीरका भी कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वहाँ कुछ उत्कृष्ट रूपसे तेतीस सागर काल तक रहता है ऐसा कथन करना चाहिए । इसी प्रकार आहारकशरीरकी समुत्कीर्तनाका भी कथन करना चाहिए। इतनी विशेषता है की इस प्रकार उत्कृष्टरूपसे वह अन्तर्महर्त काल तक रहता है ऐसा यहाँ कथन करना चाहिए । द्वितीय आदि समयों में भी इसी प्रकार प्रदेश रचना करनी चाहिए। विशेषार्थ-- जिस शरीरके प्रथमादि समयोंमें जितने परमाणु मिलते हैं उनका अपनी अपनी आयुस्थिति के अनुसार बटवारा होकर उनमें से जिनकी जितनी स्थिति पडती है उतने काल तक वे रहते हैं। उदाहरणार्थ तीन पल्यकी आयुवाले किसी मनुष्यने प्रथम समय में ही तद्भवस्थ होकर औदारिकशरीरके परमाणुओंको ग्रहण करके उन्हें तीन पल्यके जितने समय हैं उनमें बाँट दिया तो इनमें से जिनकी स्थिति एक समय है वे एक समय तक रह कर निर्जीर्ण हो जाते हैं। जिनकी स्थिति दो समय है वे दो समय तक रह कर निर्जीर्ण हो जाते हैं । इसी प्रकार क्रमसे एक एक समय बढते हुए तीन पल्यके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। यह प्रथम समयमें ग्रहण किये गये परमाणुओंकी अपेक्षासे विवेचन किया है। आहारक होनेके दूसरे समयमें जिन परमाणुओंका ग्रहण होता है उनकी निषेक रचना प्रथम समयसे नहीं होती। क्योंकि, इनके लिए प्रथम समय गत हो चुका है। इसी प्रकार तृतीयादि समयों में ग्रहण किय गये परमाणुओंके विषय में भी जानना चाहिए । यहाँ दो बातें खासरूपसे समझने की हैं। प्रथम तो यह कि नोकर्म की आबाधा नहीं होती, इसलिए इसकी निषेक रचना उसी समयसे होती है जिस समयमें उसको ग्रहण किया है । और दूसरी बात यह कि नोकर्मकी स्थिति भुज्यमान आयुके अनुसार होती है और इसलिए जिसकी जितनी भवस्थिति होती है या शेष रहती है ग्रहण किये गये नोकर्मकी उतनी ही स्थिति पडती है। विशेष खुलासा इस प्रकार है- जो औदारिक आदि तीन शरीरोंके लिए वर्गणायें आती हैं उनमें से जिसकी जितनी स्थिति है उसके अनुसार उनकी निषेक रचना होती है। निषेक शब्द नि उपसर्ग पूर्वक सिच् धातुसे बना है जिसका अर्थ सिञ्चन करना है। अर्थात् अपनी अपनी स्थितिके प्रत्येक समय में वर्गणाओंको देना निषेक रचना है। यहां सर्व प्रथम औदारिक और वैक्रियिक इन दो शरीरोंकी निषेक रचनाके सम्बन्ध में विचार करना है। जो जीव एक पर्यायको छोडकर दूसरी पर्यायको ग्रहण करता है वह यदि विग्रहगति में स्थित होता है तो उसके विग्रहगतिमें रहते हुए अपनी अपनी पर्याय के अनुसार औदारिक आदि तीन शरीरके योग्य वर्गणाओंका ग्रहण नहीं होता, क्योंकि, उसके यथासम्भव औदारिकशरीर और वैक्रियिकशरीर नामकर्मका उदय नहीं होता। किन्तु जब ऐसा जीव यथासम्भव एक, दो या तीन मोडोंको पारक र अवस्थित होता है तब उसके इन नामकर्मों का उदय होता है और तभी यह जीव इन शरीरोंके योग्य वर्गणाओंको ग्रहण करता है । अर्थात् यदि वह मनुष्य और तिर्यंच है तो उसके औदारिकशरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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