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________________ ४०० } छवखंडागमे वग्गणा - खंड ग्गहणक्कमपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि- उक्कस्सियाए वड्ढी वड्ढिदो ।। ४२० ।। पढमसमयजोगादो बिदियसमयजोगो असंखेज्जगुणो । बिदियादो तदियसमयजोगो असंखेज्जगणो । एवं णेयव्वं जात्र एगंताणुवड्डिचरिमसमओ ति । एत्थ गुणगारपमाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एत्थ गुणगारो जणओ वि उक्कस्सओ वि अस्थि । raft जहण्णादो उक्कस्सो असंखेज्जगुणो । तत्थ जहण्णवड्डिपडिसेहट्टमक्क स्सियाए वड्ढी वडिदो त्ति भणिदं । एदेण एयंताणुवड्ढीए आहारणक्कमो परुविदो । किमट्ठ उक्कस्सजोगेणेव आहाराविज्जदि ? बहुपोग्गलग्गहणट्ठ 1 अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तदो । ४२१ | छपज्जत्तिसमाणणकालो जहण्णओ उक्कस्सओ वि अंतोमहुत्तमेत्तो । तत्थ सव्वजहणेण अंतमहुत्तेण कालेन सव्वाहि य पज्जत्ती हि पज्जत्तयदो तिवृत्तं होदि । किमट्ठे अपज्जत्तकालो लहुओ घेप्पवि ? पज्जत्तकालपरिणामजोगे हितो अपज्जत्तकाल गता वडजोगेहि असंखेज्जगुणहीणेहि* बहुपोग्गलग्गहणाभावादो । ( ५, ६, ४२१ करके अब द्वितीय आदि समयों में आहारग्रहण के क्रमका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं- उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ । ४२० । प्रथम समयके योग से द्वितीय समयका योग असंख्यातगुणा है । दूसरे समय के योग से तीसरे समयका योग असंख्यातगुणा है । इस प्रकार एकान्तानुवृद्धियोग के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए । यहाँपर गुणकारका प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । यहाँ पर गुणकार जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है । इतनी विशेषता है कि जघन्यसे उत्कृष्ट असंख्यातगुणा है । उनमेंसे जघन्य वृद्धिका प्रतिषेध करनेके लिए उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ यह कहा है । इसद्वारा एकान्तानुवृद्धिसे आहारग्रहणका क्रम कहा गहा है । शंका-- उत्कृष्ट योगसे ही आहारग्रहण क्यों कराया गया है ? समाधान -- बहुत पुद्गलोंके ग्रहण करने के लिए । अन्तर्मुहूर्त अर्थात् सबसे लघु काल द्वारा सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ । ४२१ । छह पर्याप्तियोंके पूरा होनेका काल जघन्य भी है और उत्कृष्ट भी है। उनमें से सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका -- लघु अपर्याप्त काल किसलिए ग्रहण किया जाता है ? समाधान -- क्योंकि, पर्याप्तकालीन परिणामयोगोंसे अपर्याप्तकालीन एकान्तानुवृद्धियोग असंख्यातगुणे हीन होते हैं अतः उनके द्वारा बहुत पुद्गलोंका ग्रहण नहीं होता, इसलिए अपर्याप्त काल लघु ग्रहण किया है । • अ० प्रती सव्वाहि पज्जत्तीहि इति पाठा 1 Jain Education International ता० प्रती असखेज्जगुणेहि इति पाठ | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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