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________________ ५, ६, ४१९ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पदमीमांसा (१९९ वा तिपलिदोवमग्गहणं । ण च सम्वसिद्धिदेवाउअं व णिवियप्पं तवाउअं, तप्परूवयसुत्त-वक्खाणाणमणवलंभादो । संपहि तस्स मयस्स लक्खणपरूवणट्ठमुत्तरसुतं भणवि-- तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्येण उक्कस्सेण जोगेण आहारिदो । ४१९ । सरीरपाओग्गपोग्गलपिंडग्गहणमाहारो। तत्थ पढमसमयआहारएण आहारिदो। बिवियादिसमयआहारपडिसेहढं पढमसमएण आहारो विसेसिदो। एसो पढमसमयआहारो पढमसमयतब्भवत्थो बिदियसमयतब्भवत्थो तदियसमयतब्भवत्थो वि अस्थि, तत्थ बिविय-तदियसमयतब्भवत्थाहाराणं पडिसेहढं पढमसमयतब्भवत्थविसेसणेण पढमसमयआहारो विसे सिदो । विग्गहगदीए उप्पण्णे को दोसो ? ण, दोसमयसंचयदव्यस्स* अभावप्पसंगादो। उक्कस्सजोगो जस्स पढमसमयआहारस्स सो उक्स्सो जोगो तेण उक्कस्सजोगेण आहारिदो। अणाहार वियप्पपडिसेहटें एवकारणिद्देसो कदो। एवमुप्पण्णपढमसमए आहारविसेस परूविय संपहि बिदियादिसमएसु आहार सूत्रमें तीन पल्यकी स्थितिवाले पदका ग्रहण किया है। सर्वार्थसिद्धिके देवोंकी आयु जिस प्रकार निर्विकल्प होती है उस प्रकार वहाँकी आयु निर्विकल्प नहीं होती, क्योंकि, इस प्रकारकी आयुकी प्ररूपणा करनेवाला सूत्र और व्याख्यान नहीं उपलब्ध होता । अब उस मनुष्यके लक्षणका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं-- उसी मनुष्यने प्रथम समयमें आहारक और प्रथम समयमें तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योगसे आहारको ग्रहण किया ॥ ४१९ ॥ __ शरीरके योग्य पुद्गलपिण्डका ग्रहण करना आहार है। वहाँ प्रथम समय में आहारक होकर आहार ग्रहण किया। द्वितीय आदि समयोंमें आहारका प्रतिषध करनेके लिए प्रथम समय' पदसे आहारको विशेषित किया है। यह प्रथम समयका आहार प्रथम समयमें तद्भवस्थ होकर, दूसरे समयमें तद्भवस्थ होकर और तीसरे समयमें तद्भवस्थ होकर भी होता है, अतः वहाँ द्वितीय और तृतीय समयमें तद्भवस्थ होकर जो आहार होता है उसका प्रतिषेध करने के लिए 'प्रथम समय में तद्भवस्थ' इस विशेषणसे प्रथम समयके आहारको विशेषित किया है। शंका-- विग्रहगतिसे उत्पन्न होने में क्या दोष है ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, दो समय में संचित हुए द्रव्यके अभावका प्रसंग आता है। प्रथम समयमें आहारक जिस जीवके जो उत्कृष्ट योग होता है वह उत्कृष्ट योग वहाँपर विवक्षित है। उस उत्कृष्ट योगसे आहार ग्रहण किया। अनाहार विकल्पका निषेध करने के लिए 'एवकार' पदका निर्देश किया है। इस प्रकार उत्पन्न होने के प्रथम समयमें आहार विशेषका कथन ४ अ. प्रसो 'विसेसणं' का० प्रती । विसेसण ' इति पाठ। 1 * म० प्रतिपाठोऽयम् । प्रतिषु ' दोससंचयदव्वस्स ' इति पाठ; । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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