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________________ ५, ६, ६३२ ) बंधणाणुयोगद्दारे चूलिया ( ४८९ कसायचरिमसमओ ति । एवं पमाणाणगमो समत्तो । सेडिपरूवणा दुविहा- अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि । तत्थ अणंतरोवणिधा वुच्चदे । तं जहा खीणकसायपढमसमए मरंता जीवा थोवा । बिदियसमए मरंता जीवा विसेसाहिया। तवियसमए मरंता जीवा विसेसाहिया। एवं विसेसाहिया विसेसाहिया जाव आवलियपुधत्तं ति । विसेसो पुण आवलियाए असंखेज्जविभागेण होति । तदणंतरउवरिमसमयप्पहुडि संखेज्जदिभागब्भहिया जाव विसेसाहियमरणचरिमसमओ त्ति । विसेसो पुण संखेज्जरूवपडिभागेण । तदो खीणकसायकालस्स असंखज्जविभागे आवलियाए असंखेज्जविभागे सेसे गणसेडिमरणं होदि । तदो विसेसाहियमरणचरिमसमए मदजीहितो गुणसेडिमरणपढमसमए मरंता जीवा असंखेज्जगणा । को गणगारो? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। विदियसमए मरंता जीवा असंखेज्जगणा । एवमसंखेज्जगुणा असंखेज्जगणा मरंति जाव खीणकसायचरिमसमओ त्ति । के वि आइरिया जीवे मोत्तूण पुलवियाणमुवरि इमं परूवणं कुणंति तेसि गणगारपमाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो वि ण होदि । कुदो? आवलियाए असंखेज्जदिमागेसु जहण्णपरित्तासंखेज्जमेत्तेसु वि अण्णोणगुणिदेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागमेतपुलवियाणमुप्पत्तीदो । एवमणंतरोवणिधा समत्ता। क्षीणकषायके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए । इस प्रकार प्रमाणानुगम समाप्त हुआ। श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकारकी है- अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। उनमें से पहले अनन्तरोपनिधाका कथन करते हैं। यथा- क्षीणकषायके प्रथम समयमें मरनेवाले जीव स्तोक हैं। दुसरे समयमें मरनेवाले जीव विशेष अधिक हैं। तीसरे समयमें मरनेवाले जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार आवलिपृयक्त्वप्रमाण कालतक उत्तरोत्तर प्रत्येक समयमें मरनेवाले जीव विशेष अधिक विशेष अधिक हैं। परन्तु विशेषका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेसे प्राप्त होता है । आवलिपृथक्त्वके बाद अगले समयसे लेकर विशेष अधिकके क्रमसे मरनेवाले जीवोंके अन्तिम समयतक उत्तरोत्तर प्रत्येक समयमें संख्यातवें भाग अधिक संख्यातवें भाग अधिक जीव मरते हैं। यहाँ विशेषका प्रमाण संख्यातका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना है। अनन्तर क्षीणकषायके कालके असंख्यातवें भागप्रमाण अर्थात् आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण शेष रहनेपर गणश्रेणिमरण होता है। अतः विशेष अधिक मरण के अन्तिम समय में मरे हुए जीवोंसे गुणश्रेणि मरणके प्रथम समयमें मरनेवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं। गुणकार क्या है ? पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण गणकार है। दूसरे समयमें मरनेवाले जीव तगुण होते हैं। इस प्रकार क्षीणकषायके अन्तिम समयके प्राप्त होनेतक प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणे असंख्यात गुणे जीव मरते हैं। कितने ही आचार्य जीवोंको छोडकर पुलवियोंका अवलम्बन लेकर यह प्ररूपणा करते हैं । उनके मतमें गुणकारका प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण भी नहीं होता है, क्योंकि, जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण भी आवलिके असंख्यातवें भागोंके परस्पर गुणा करनेपर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंकी उत्पत्ति होती है । इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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