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________________ ५, ६, ११६. ) बंधणाणुयोगद्दारे उवरिधापरूवणा ( १८७ जवमज्झादो उवरिमपक्खेवावणयस्स कि पि अत्थपरूवणं* कस्सामो । तं जहा- जवमज्झदव्वे सरूवदिवगणहाणीए गणिदे जवमज्झपदेसगं होदि । पुणो जवमज्झदव्वं एविय दुरूवाहियदिवड्डगुणहाणीए गुणिदे जवमज्झदव्वदाए समहियपदेसगं होदि । पुणो जवमज्झदवदवादो उवरिमदव्वद्ववाए एगो पक्खेवो हीणो त्ति दिवड्गुणहाणिणा जवमझदव्वदाए ओट्टिदाए एगो पक्खेवो होदि । पुणो तम्मि दुरूदाहियदिवडगुणहाणिणा गुणिदे रिणपदेसग्गं होदि । तत्थ दोदवट्ठदपक्खेवे घेतूण पुध दुविय सेसगुणगार-भागहारा सरिसा ति अवणिदे जवमज्झदव्वटुवा होदि । एद पदेसग्गं पुस्विल्लपदेसग्गम्मि अवणिदे जवमज्झपदेसग्गादो सरिसं पदेसगं होदि। पुणो तत्थ पुध टुविददवट्टदाए दोपक्खेवमेतपदेसेसु अवणिदेसु जवमज्झादो अणंतरउवरिमघग्गणपदेसरगं होदि । पुणो जवमज्झादो उवरि तदियाए वग्गणाए पदेसग्गं जवमज्झपदेसेहितो छहि दव्वदापक्खेवमेतपदेसेहि ऊणं होदि । चउत्थवग्गणाए पदेसग्गं बारहेहि ऊणं होदि । एवं चडिदद्धाणसंकलणं दुगुणमेत्तदव्वट्ठदपक्खवेहि ऊणं होदूण वग्गणाणं पदेसग्गमुवरि गच्छदि । णवरि जत्थ दवट्ठद पक्खेवा सरिसा ये ९ स्थान जाकर यवमध्य ( निकटतम ) आधा ६७२ आता है। द्वितीय यवमध्यसे उत्तर १२३२, १२००, ११५२, १०८८, १०८०, १०६४, १०४०, १००८, ९७८, ९२०, ८६४, ८००, ७८०, ७५६, ७२८, ६९६, ६६०, व ६२० ये १८ स्थान जाकर ६२० यवमध्य का ( निकटतम ) आधा ६२० आता है। इस प्रकार संदृष्टिके अनुसार प्रदेशार्थमें यवमध्यसे पूर्वकी गुणहानिमें ९ स्थान हैं और उत्तरकी गुणहानिमें ( ९४२ ) 3 १८ स्थान हैं। अब यवमध्यसे उपरिम प्रक्षेपोंके निकालनेकी विधिका कुछ कथन करते हैं। यथायवमध्यके द्रव्यको एक अधिक डेढ गुणहानिसे गुणित करनेपर यवमध्य प्रदेशाग्र होता है। पुन: यवमध्यके द्रव्यको स्थापित कर दो अधिक डेढ गुणहानिसे गुणित करने पर यवमध्यद्रव्यार्थताकी अपेक्षा एक अधिक प्रदेशाग्र होता है। पुनः यवमध्यद्रव्यार्थतासे उपरिम द्रव्यार्थतामें एक प्रक्षेप हीन है, इसलिए डेढ गुणहानिसे यवमध्यद्रव्यर्थताके भाजित करने पर एक प्रक्षेप होता है। पुन: उसे दो अधिक डेढ गुणहानिसे गुणित करने पर ऋणस्वरूप प्रदेशाग्र होता है। वहाँ द्रव्यार्थताके दो प्रक्षेप लेकर पृथक् स्थापित करके शेष गुणकार और भागहार समान हैं, इसलिए अलग कर देने पर यवमध्यकी द्रव्यार्थता होती है। इस प्रदेशाग्रको पहलेके प्रदेशाग्रमेंसे कम कर देनेपर यवमध्य के प्रदेशाग्रके समान प्रदेशाग्र होता है। पुनः वहाँ पृथक स्थापित हुई द्रव्यार्थताके दो प्रक्षेप मात्र प्रदेशोंके अलग करने पर यवमध्यसे अनन्तर उपरिम वर्गणाका प्रदेशाग्र होता है। पुनः यवमध्यसे ऊपर तीसरी वर्गणाका प्रदेशाग्र यवमध्यके प्रदेशोंसे द्रव्यार्थताके छह प्रक्षेपमात्र प्रदेशोंसे हीन होता है। चतुर्थ वर्गणाका प्रदेशाग्र बारह प्रक्षेपमात्र प्रदेशोंसे हीन होता है । इस प्रकार जितने स्थान आगे गये हैं उनके संकलनसे गुणित दूने द्रव्यार्थतारूप प्रक्षेपोंसे हीन होता हुआ वर्गणाओं का प्रदेशाग्र ऊपर जाता है । इतनी विशेषता है कि जहाँ पर द्रव्यार्थताके प्रक्षेप समान * अ०का प्रत्योः 'अद्भपरूवणं ' इति पाठ:1 * ता० प्रती ‘दवट्ठिद-' इति पाठः । Jain Education in national For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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