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________________ १८८ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ११६ ण होंति तत्थ पुध तेसि संकलणं काढूण सिस्साणं पडिबोहो कायव्वो । एवं जवमज्झस्स उवरि सव्वगुणहाणीणमद्धाणमसंखेज्जलोगमेतं चेव पुध पुध होदि । होताओ वि विसेसहीणाओ चेव होंति, सरिसाओ ण होंति, दव्वद पक्खेवाणं जवमज्झं पेक्खिदूण अवट्टिदकमेण हाणीए अणुवलंभादो । एदस्त भावत्थोदवट्ठदापक्खेवेसु* अणवद्विदरूवेण एगेगगुणहाणिम्हि सगसगसरूवेण होयमाणेसु गुणगारेसु च सव्वत्थ रूवाहियकमेण गच्छ माणेसु गणहाणिअद्धाणाणं सरिसभावस्स कारणं णस्थि । तेण विसरिसं चेव तदद्धाणमिदि भणिदं होदि । एवमणंतरोवणिधा समत्ता। संपहि पदेसमस्सिदूण परंपरोवणिधा जवमज्झादो हेट्ठा वुच्चदे । तं जहा-- नहीं होते हैं वहाँ उनकी अलगसे संकलना करके शिष्योंको ज्ञान कराना चाहिए । इस प्रकार यवमध्यके ऊपर सब गुणहानियोंका अध्वान पृथक पृथक् असंख्यात लोकप्रमाण होता है। ऐसा होता हुआ भी विशेष हीन ही होता है सदृश नही होता, क्योंकि, यवमध्यको देखते हुए द्रव्यार्थता के प्रक्षेपोंमें अवस्थित क्रमसे हानि उपलब्ध नहीं होती है। इसका आशय यह है कि द्रव्या र्थताके प्रक्षेपोंके अवस्थितरूपसे एक एक गुणहानिमें अपने अपने स्वरूपसे घटने पर और गुणकारोंके सर्वत्र एक अधिकके क्रमसे जाने पर गुणहानिअध्वानोंके सदृशरूप होनेका कारण नहीं है। इससे गुणहानियोंका अध्वान विसदृश ही होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई। विशेषार्थ-संदृष्टि में द्वितीय गुणहानिमें द्रव्यार्थतका प्रक्षेप ८ है। इसका दुगुणा १६ है । यवमध्य ( १२४८ ) के पश्चात् प्रथम प्रदेशार्थता १२३२ है जो यवमध्यसे एक दुगुणा प्रक्षेप ( ८४२ ) कम है ( १२४८ - १२३२ % १६ ) । दूसरी प्रदेशार्थता १२०० हैं जो यवमध्य १२४८ से ( १+२ = ३ ) तीन दुगुणे प्रक्षेपों (३४८४२ = ४८) से हीन है। तीसरी प्रदेशार्थता ११५२ है जो यवमध्यसे ( १+२+३= ६ ) छह दुगुणे प्रक्षेपों (६४८४२ = ९६ ) अर्थात् ( १२४८ - ११५२ = ९६ ) कम है । चौथी प्रदेशार्थता १०८८ है जो यवमध्यसे (१+२+३+४ - १०) दस दुगुणे प्रक्षेप (१०४१६ = १६०) अर्थात् ( १२४८ - १०८८ = १६०) कम है। १०८८ तृतीय गुणहानिको प्रथम प्रदेशार्थता है और पंचम प्रदेशार्थता १०८० तीसरी गुणहानिकी द्वितीय प्रदेशार्थता है । तीसरी गुणहानिमें द्रव्यार्थता दुगुणा प्रक्षेप (२४४) = ८ है। तीसरी गुणहानिके प्रथम प्रदेशार्थतासे एक स्थान आगे जाने पर १०८० प्रदेशार्थता प्राप्त होती है जो ( १०८८ - १०८० = ८ ) एक दुगुण प्रक्षेप (८ ) कम है। तीसरी गुणहानिमें प्रथम प्रदेशार्थतासे दो स्थान आगे जाकर १०६४ प्रदेशार्थता है जो प्रथम प्रदेशार्थता १०८८ से (१+२ = ३) तीन दुगुण प्रक्षेप ( ३४२४४ = २४ ) अर्थात् ( १०८८ - १०६४ = २४ ) कम है। इसी प्रकार आगे भी संकलन करके द्रव्यार्थताके प्रक्षेपसे गणा करके हानिका प्रमाण जान लेना चाहिये। अब प्रदेशोंका आश्रय लेकर यवमध्यसे नीचे परम्परोपनिधाका कथन करते हैं । यथा8 ता० प्रती · दवट्ठिद-' इति पाठः 1 * अप्रतो ' भावो दवद्वदाओ पक्खेवेसु ' इति पाठः । Jain Education filternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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