SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ६, ९५. ) बंधणाणुयोगद्दारे सुहुमणिगोददव्ववग्गणा ( ११५ टाणाणि अंतरिदूणेदमण्णं द्वाण मप्पज्जदि। पुणो णिरंतरमिच्छामो ति इमं विस्सासुवचयसहिदएगोरालियपरमाणं पण्णाए पुध दृविय पुणो एगपरमाणुविस्सासुवचयमेतेण परिहीणपुग्विल्लोरालियसरीरपुंजम्हि पुवमणिदपरमाणुम्हि पक्खित्ते एगपरमाणुत्तरं होदूण अण्णमपुणरुत्तट्टाणं होदि । पुणो एगविस्तासुवचयपरमाणुम्हि वड्डिदे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । बिदियविस्सा० बिदियमपुण । तदियविस्सासु० तदियमपु. गरुत्तट्टाणं होदि । एवमेगेगुत्तरकमेण सधजीवेहि अणंतगुणमेत्तओरालियसरीरविस्सासुवचयपरमाणुपोग्गलेसु वडिदेसु एत्तियाणि चेव अपुणरुत्तढाणाणि लग्भंति । एवं बादरणिगोदवग्गणवडावणविहाणेण ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीरेसु विस्सासुवचयसहिदअभवसिद्धिएहि अणंतगण सिद्धाणमणंतभागमेत्तपरमाणुपोग्गलेसू वडिदेसु एगो सुहमणिगोदजीवो पवेसियव्वो। एवं बादरणिगोदवग्गणवड्ढाविदविहाणेण अणंताणंतसुहमणिगोदजीवेसु पविठेसु एगंसाहारणणिगोदसरीरं पविसदि। एवपसंखेज्जलोग. मेत्तणिगोदसरोरेसु पविट्ठे सु एगा पुलविया पविदि । एवं आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपुलवियासु वडिदासु जले थले वा सुहमणिगोदवग्गणा सत्थाणुक्कस्सा होदि। पुणो एदीए सुहमणिगोदवग्गणाए सह महामच्छसरीरे सुहुणिगोदवग्गणा सरिसा लग्भदि । पुणो पुग्विल्लसुहमणिगोदवग्गणं मोत्तूण एदीए सरिसमहामच्छसरीरसुहुमसाथ बढे हुए एक परमाणुसे युक्त अन्य जीवके सब जीवोंसे अनन्तगुणे स्थानोंका अन्तर देकर यह अन्य स्थान उत्पन्न होता है । पुन: निरन्तर स्थान इच्छित हैं इसलिए इस विस्रसोपचयसहित एक औदारिक परमाणुको बुद्धि के द्वारा पृथक् स्थापित करके पुनः एक परमाणु विस्रसोपचयमात्रसे हीन पहलेके औदारिकशरीर पुञ्जमें पहले निकाले हुए परमाणुके मिला देने पर एक परमाणु अधिक होकर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । पुनः एक विस्रसोपचय परमाणुकी वृद्धि होने पर अन्य अपुनरुक्त होता है । दूसरे विस्रसोपचय परमाणुके बढ़ने पर दूसरा अपुनरुक्त स्थान होता है । तीसरे विस्रसोपचय परमाणु के बढ़ने पर तीसरा अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार एक एक परणाणु अधिकके क्रमसे सब जोवोंसे अनन्तगुणे औदरिकशरीर विस्रसोपचय परमाणु पुद्गलों के बढ़ने पर इतने ही अपुनरुक्त स्थान होते हैं। इस प्रकार बादर निगोद वर्गणाकी बढाने की विधिके अनुसार औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरोंके विस्रसोपचयसहित अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र परमाणु पुद्गलोंके बढ़ने पर एक सूक्ष्म निगोद जीवको प्रविष्ट करना चाहिए। इस प्रकार बादरनिगोदवर्गणाके बढानेकी विधिके अनुसार अनन्तानन्त सूक्ष्म निगोद जीवोंके प्रविष्ट होने पर एक साधारण निगोदशरीर प्रविष्ट होता है । इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरीरोंके प्रविष्ट होने पर एक पुलवी प्रविष्ट होती है । इस प्रकार आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंके बढ़ने पर जलम व स्थल में सूक्ष्म निगोदवर्गणा स्वस्थान उत्कृष्ट होती है। पुन: इस सूक्ष्म निगोदवर्गणाके साथ महा मत्स्यके शरीरमें सूक्ष्म निगोदवर्गणा समान लब्ध होती है । पुन: पहलेकी सूक्ष्म निगोद *ता० प्रती -मण्णहा ट्ठाण-' इति पाठः। ता. आ० का० प्रतिष पक्खित्तेपरमाणतरं इति पाठः । ता० प्रती एवं ( गं ) साहारण-' अ. का. प्रत्यो: ' एवं साहारण- इति पाठः । ० ता० आ० का० प्रतिषु 'जले वा ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy