SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 372
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५, ६, २६३ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए अणंत रोवणिधा (३३९ पदेसगं णिसित्तं तं केत्तियमिदि जं भणिदं तं कथं घडदे । ण एस दोसो, आबाधं मोत्तण णिसेगद्विदीसु जा पढमा दिदी तिस्से तत्थ गहणादो। अथवा जाणासमयपबद्धे अस्सिदूण एसा परूवणा कायव्वा । ण च ओकड्डकडुणाहि एत्थ पदेसाणं विसरिसत्तं, सेचीयमस्सिदूण परूविज्जमाणे विसरिसत्ताभावादो। एवं पदेसपमाणाणगमो त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । ___अणंतरोवणिधाए ओरालिय-वेउविय-आहरसरीरिणा तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्येण ओरालिय-वेउग्विय-आहारसरीरत्ताए जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुअं ॥२६३॥ आहारसरीरस्स पढमसमयतब्भवत्थविसेसेणं कथं जुज्जदे ? एस दोसो, ओरालियसरीरं छंडिण आहारसरीरेण परिणदस्स अवांतरQगमणमथि त्ति पढ़मसमयतब्भवत्थविसेसणुववत्तीदो। तिण्णं सरीराणं सगसगकम्मट्टिदोणं पढमसमए जं मिसित्तं पदेसग्गं तं बहुगं होदि उवरि णिसिंचमाणदिदीणं पदेसेहितो । छोड़ कर प्रथम समय में जो प्रदेशाग्र निषिक्त होता है वह कितना है ऐसा जो कहा है वह कैसे घटित होता है ? समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, आबाधाको छोड़कर निषेकस्थितियों में जो प्रथम स्थिति है उसका वहां ग्रहण किया है।। ___ अथवा नाना समयप्रबद्धोंका आश्रय लेकर यह प्ररूपणा करनी चाहिए। यदि कहा जाय कि अपकर्षण और उत्कर्षणके निमित्तसे यहां परमाणुओंकी विसदृशता हो जायगी सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, सिंचनका आश्रय लेकर कथन करनेपर विसदृशताका अभाव है। इस प्रकार प्रदेशप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा जो औदारिक शरीरवाला, वैक्रियिकशरीरवाला और आहारकशरीरवाला जीव है, प्रथम समयमें आहारक हुए और प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुए उसी जीवके द्वारा औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीररूपसे जो प्रदेशाग्र प्रथम समयमें निषिक्त होता है वह बहुत है ।। २६३ ।। शंका-आहारकशरीरका 'प्रथमसमयतद्भवस्थ' विशेषण कैसे बन सकता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, औदारिकशरीरको छोड़ कर आहारकशरीर रूपसे परिणत हुए जीवका अवान्तरगमन है, इसलिए 'प्रथमसमयतद्भवस्थ' विशेषण बन जाता है। तीन शरीरोंका अपनी अपनी कर्मस्थितियोंके प्रथम समय में जो प्रदेशाग्र निषिक्त होता है वह आगेकी स्थितियों में प्राप्त होनेवाले प्रदेशोंसे बहुत होता है। * ता० प्रती · णिसेगटिदीए जा पढमहिठदी ' इति पाठ।। अवंतर- ' इति पाठः । अ०का०प्रत्यो। परिणदस्स Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy