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________________ ५३२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६ ६८५ पज्जत्तउक्कस्सपिल्लेवणट्ठाणे ति । तदुवरि विसेसहीणकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तमद्धाणं गंतूण बादरणिगोदपज्जत्ताणमुक्कस्सपिल्लेवणढाणं होदि । होत पि पढमतिभागस्स चरिमसमयादो हेट्ठा अंतोमहुत्तमोसरिदूण भवहि । संपहि बादरणिगोदपज्जत्तउक्कस्सणिल्लेवणट्टाणादो उवरिमेदे पढमतिभागस्स संखेज्जेसु भागेसु बिवियतिभागे सयले च णत्थि आवासयाणि, तत्थ आउअबंधाभावादो। तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहमणिगोदजीवपज्जत्तयाणमाउअबंधजवमज्झं ॥ ६८५ ॥ उप्पण्णपढमसमए आउअबंधस्स पारंभो ण होदि, पिच्छएण सगजहणाउअबेतिभागे गंतूण चेव आउअबंधो होदि ति जाणावणटुमंतोमहत्तग्गहणं कदं । एत्थ जवमज्झसरूवपरूवणा कीरदे। तं जहा-उप्पणपढमसमयप्पहुडि पढमबिदियतिभागे बोलेदूण तवियतिभागपढमसमए आउअबंधया सुहमणिगोदपज्जत्तजीवा थोवा । तदुवरिमसमए आउअबंधया जीवा विसेसाहिया। एवं विसेसाहिया विसेसाहिया होदूण ताव गच्छंति जाव आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तमद्धाणं गंतूण सुहमणिगोदपज्जत्ताणमाउअबंधजवमज्झटाणमप्पण्णं तितेण परं विसेसहीणा होदण गच्छंति जाव अंतोमहुत्तमेत्तमद्धाणमुवरि गंतूण सहमणिगोदपज्जत्ताणं चरिमआउअबंधट्ठाणं ति। आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अध्वान जाकर बादर निगोद पर्याप्तकोंका उत्कृष्ट निर्लेपनस्थान होता है । ऐसा होता हुआ भी प्रथम विभागके अन्तिम समयसे पीछे अन्तर्मुहूर्त सरक कर होता है। अब बादर निगोद पर्याप्तकोंके उत्कृष्ट निर्लेपनस्थानसे प्रथम त्रिभागके उपरिम संख्यात बहुभागोंमें और सम्पूर्ण द्वितोय त्रिभागमें आवश्यक नहीं हैं, क्योंकि, वहाँ आयुका बन्ध नहीं होता। उसके बाद अन्तर्मुहूर्त जाकर सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंका आयबन्धयवमध्य होता है ।। ६८५ ॥ उत्पन्न होने के प्रथम समय में आयुबन्धका प्रारम्भ नहीं होता है । निश्चयसे अपनी जघन्य आय के दो विभाग जाकर ही आयुका बन्ध होता है इस बात का ज्ञान कराने के लिए ' अन्तर्महर्त ' पदका ग्रहण किया है। यहाँ पर यवमध्यके स्वरूपका कथन करते हैं। यथाउत्पन्न होने के प्रथम समयसे लेकर प्रथम और द्वितीय विभागको बिताकर तीसरे त्रिभागके प्रथम समयमें आयुका बन्ध करनेवाले सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीव थोडे हैं। उससे उपरिम समयमें आयुका बन्ध करनेवाले जीव विशेष अधिक हैं। इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अध्वान जाकर सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकोंके आयु बन्धयवमध्यस्थानके उत्पन्न होने तक विशेष अधिक विशेष अधिक होकर जाते हैं। उसके बाद अन्तर्मुहर्त अध्वान ऊपर जाकर सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकों के अन्तिम आयुबन्धस्थानके प्राप्त होने तक विशेष हीन होकर जाते हैं। ४ का० प्रतो :-वेत्तिभागे' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org:
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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