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________________ ५, ६, २९० ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरसरूवणाए पदेसविरओ ( ३५५ बिवियं जीवणियट्ठाणं होदि । पुणो अण्णण विहाणेण घादेदूण जहण्णणिव्वत्तिटाणे तिसमऊणे कदे तदियं जीवणियहाणं होदि । एवमवरिमआउअवियप्पे घादिय जहगणिव्वत्तिट्ठाणं चदुसमऊण-पंचसमऊणादिकमेण ओदारेवव्वं जाव आवलियाए असंखे०भागमेत्तजीवणियहाणाणि जहण्णणिवत्तिट्टाणे लद्धाणि त्ति । एत्थ एत्तियाणि चेव जीवणियद्वाणाणि लब्भंति णो वडिमाणि, जहण्णणिवत्तिढाणम्मि आवलिअसंखे० भागादो अधिओ घादो णस्थि त्ति गुरूवएसादो। तेण णिवत्तिट्टाणेहितो जीवणियाणाणि आवलि. असंखे० भागेण विसेसाहियाणि । जहण्णणिवत्तिद्वाणादो हेढा जीवणियट्टाणाणि चेव, ण णिव्वत्तिट्टाणाणि, आउअबंधवियप्पाभावादो। उरि णिव्वत्तिट्टाणाणि जीवणियहाणाणि च सरिसाणि, जीवाणं बंधाउअमेत्तकालं जीविदूण अण्णत्थ गमणुवलंभादो । के वि आइरिया एवं भणंति- जहणणिवत्तिट्टाणमवरिमाउअवियप्पेहि वि घादं गच्छदि । केवलं पिघादं गच्छदि । वरि उवरिमआउअवियप्पेहि जहण्णणिव्वत्तिट्ठाणं घादिज्जमाणं समऊणदुसमयऊणादिकमेण हीयमाणं ताव गच्छदि जाव जहपणणिव्वत्तिद्वाणस्त संखेज्जे : भागे ओदरिय संखे० भागो सेसो त्ति। जदि पुण केवलं जहण्णणिव्वत्तिट्टाणं चेव घावेदि तो तत्थ दुविहो कदलीघादो होदि- जहण्णओ पर दूसरा जीवनीयस्थान होता है। पुनः इस विधिसे घात कर जघन्य निर्वृत्तिस्थानके तीन समय कम करने पर तीसरा जीवनीयस्थान होता है। इस प्रकार उपरिम आयुविकल्पको घात कर तीन जघन्य निर्वृत्तिस्थानको चार समय और पाँच समय आदिके क्रमसे कम करते हुए जघन्य निर्वृत्तिस्थान में आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवनीयस्थानोंके प्राप्त होने तक उतारना चाहिए। यहाँ पर इतने ही जीवनीयस्थान प्राप्त होते है अधिक नहीं, क्योंकि, जघन्य निर्वत्तिस्थानमें आवलिके असंख्यातवें भागसे अधिक स्थानोंका घात नहीं होता ऐसा गरुका उपदेश है। इसलिए निर्वत्तिस्थानोंसे जीवनीयस्थान आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण विशेष अधिक हैं। जघन्य निर्वत्तिस्थानसे नीचे जीवनीयस्थान ही हैं निर्वत्तिस्थान नहीं, क्योंकि, वहाँ आयुबन्धके विकल्पोंका अभाव है। ऊपर निर्वृत्तिस्थान और जीवनीयस्थान सदृश हैं, क्योंकि, जीवोंका बँधी हुई आयुमात्र काल तक जी कर अन्यत्र गमन पाया जाता है। कितने ही आचार्य इस प्रकार कथन करते हैं- जघन्य निर्वृत्तिस्थान उपरिम आयुविकल्पोंके साथ भी घातको प्राप्त होता है और केवल भी घातको प्राप्त होता है । इतनी विशेषता है कि उपरिम आयुविकल्पोंके साथ घातको प्राप्त होता हुआ जघन्य निर्वृत्तिस्थान एक समय और दो समय आदिके क्रमसे कम होता हुआ वह तब तक जाता है जब तक जयन्य निर्वृत्तिस्थानका संख्यात बहुभाग उतर कर संख्यातवें भागप्रमाण शेष रहता है। यदि पुनः केवल जघन्य निर्वत्तिस्थानको ही घातता है तो वहाँ दो प्रकारका कदलीघात होता है- जघन्य और उत्कृष्ट । * ता० प्रती ‘गमणाणुवलंभादो' इति पाठः। ४ प्रतिष · जियमाणं ' इति पाठ 1 * अ० का० प्रत्यो। ' असंखेज्जे ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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