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________________ ( ३४५ योगद्दारे सरीरपरूवणाए अनंतरोवणिधा ५, ६, २७१ ) मिच्छत्त- बारसकसायाणं सव्वधादीणं पदेसस्स अनंतगुणहोणत्तुवलंभादो । ण च देसघादी मेगगोवृच्छविसे सस्स अनंतिमभागे पविदे णिसेयस्स विसेसाहियत्तं जुज्जदे, विरोहादो । उवरि जत्थ दसियाणं णिसेयरचणा थक्कदि ततो उवरिमअणंतरणिसेओ संखेज्जदिभागहीणो । एवमुवरि जत्थ जत्थ पयडीणं णिसेयरचणा थक्कवि तत्थ तत्थ जिसेयो संखेज्जमागहीणो संखेज्जगुणहीणो च होदित्ति वत्तव्वं । एवं चत्तालीससारोमको डाकोडीओ उवरि गंतूण जावुवरिमअणंतरद्विदी तिस्से गोवुच्छो अनंतगुहो होदि । तत्तो उवरि सव्वत्थ असंखेज्जभागहीणो, तेण एगसमयपबद्धमस्सि विणाणतरोवणिधा वोत्तुं सक्किज्जदे ? एत्थ परिहारो उच्चवेण ताव पढमपरूविवदोससम्भवो, सेचीयादो मिच्छत्तसंचयगोबुच्छाए अनंतरोवणिधाए भण्णमानाए सम्वत्थ विसेसहीणत्तवलंभादो। ण बिदियपक्खे उत्तदोसो वि संभवदि, मिच्छत्तमेक्क चेव घेत्तूण अनंतरावणिधाणिरूवणादो । किमट्ठ तं चेवेक्कं घेप्पदे ? अण्णासि पयडोणं द्विदि पडि पहाणत्ताणुवलंभादो । अथवा कम्मट्ठदित्ति उत्ते अटुहं कम्माणं पुध पुध द्विदीओ घेतब्बाओ । एवं गहिदे ण पुग्वृत्तदोससंभवो, सव्वकम्माणं सगसगजहणणिसेगट्टि दिपहुडि जाव तगसगुक्कस्सद्विवित्ति पुध पुध णिसेयरयणाए परूविदत्तादो । एवमणंतरोवनिधा ससत्ता । प्रदेश अनन्तगुणं हीन उपलब्ध होते हैं। यदि कहा जाय कि देशघातियों के एक गोपुच्छ विशेष के अनन्तवें भाग के पतन होने पर विषेकका विशेष अधिकपना बन जाता है सो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा होने में विरोध आता है । ऊपर जहाँ दसियोंकी निषेकरचना समाप्त होती है उससे उपरिम अनन्तर निषेक संख्यातवें भागप्रमाण हीन होता है। इस प्रकार ऊपर जहाँ जहाँ प्रकृतियोंकी निषेक रचना है वहाँ वहाँ निषेक संख्यात भागहीन और सख्यातगुणहीन होता है ऐसा कहना चाहिए। इस प्रकार चालीस कोडाकोडी सागर ऊपर जाकर जो उपरिम अनंतर स्थिति है उसका गोपुच्छ अनन्तगुणा हीन होता है । वहाँसे ऊपर सर्वत्र असख्यात भागहीन है, इसलिए एक समयप्रबद्धका आश्रय करके भी अनन्तरोपनिधाका कथन करना शक्य नहीं है । समाधान -- यहाँ पर परिहारका कथन करते हैं- प्रथम पक्षमें कहे गए दोषोंकी तो सम्भावना है नहीं, क्योंकि, सेचीयरूपसे मिथ्यात्व के संचयकी गोपुच्छा के अनन्तरोपनिधारूपसे कथन करने पर सर्वत्र विशेष हीनपना पाया जाता है। द्वितीय पक्षमें कहा गया दोष भी संभव नहीं है, क्योंकि, एक मिथ्यात्वको ही ग्रहण करके अनन्तरोपनिधाका कथन किया है । शंका-उस एकको ही किसलिए ग्रहण करते हैं ? समाधान - क्योंकि, अन्य प्रकृतियोंकी स्थितिके प्रति प्रधानता उपलब्ध होती है । अथवा कर्मस्थिति ऐसा कहने पर आठों कर्मोंकी पृथक् पृथक् स्थितियाँ ग्रहण करनी चाहिए। ऐसा ग्रहण करने पर पूर्वोक्त दोष सम्भव नहीं है, क्योंकि, सब कर्मोंकी अपनी अपनी जघन्य निषेकस्थिति से लेकर अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति तक अलग अलग निषेक रचनाका ता० प्रतो' उत्तअट्ठण्हं' अ० प्रती ' वृत्तं अट्ठण्णं' का० प्रती ' वृत्तअट्टण्णं इति पाठ ! [ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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