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छक्खंडागमे वग्गणा-खंडं
( ५, ६, २७२ परंपरोवणिधाए ओरालिय-वेउब्वियसरीरिणा तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण ओरालिय-वेउव्वियसरीरत्ताए जं पढमसमयपदेसग्गं तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण दुगुणहीणं ॥ २७२ ॥
__ एदाणि दोण्हं सरीराणं जं भवस्स पढमसमए णिमित्तं पदेसग्गं तं पेक्खिदूण कथन किया है।
विशेषार्थ- अनन्तरोपनिधामें प्रथम स्थानसे द्वितीय स्थानमें, तथा इसी प्रकार द्वितीय आदि स्थानोंसे तृतीय आदि स्थानोंमें कितनी हानि या वृद्धि होती है इसका विचार किया जाता है। यहाँ कर्मके प्रसंगसे निषेक रचनाका विचार करना है । नोकर्मोके समान उसके सम्बन्धम सामान्य नियम यह तो है ही कि प्रथम स्थितिमें जो प्रदेशाग्र मिलता है उससे द्वितीयादि स्थितियों में वह उत्तरोत्तर हीन मिलता है। पर कितना हीन मिलता है इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिए सूत्रकारने यह व्यवस्था दी है कि प्रथम समयमें जो प्रदेशाग्र निक्षिप्त होता है वह बहुत है। उससे दूसरे समयमें जो प्रदेशाग्र निक्षिप्त होता है वह विशेष हीन है । उससे तीसरे समय में जो प्रदेशाग्र निक्षिप्त होता है वह विशेष हीन है । इस प्रकार विशेष हीन का यह क्रम कर्मकी अन्तिम स्थिति तक जानना चाहिए । इस पर शंकाकारका यह कहना है कि इस प्रकार जो अनन्तरोपनिधा बतलाई है वह न तो नानासमयप्रबद्धोंका आश्रय लेकर बन सकतो है और न एक समयप्रबद्धका आश्रय लेकर ही बन सकती है। कषायप्राभतमें जो वेदक और अवेदककाल
या है उसे देखते हए तो नानासमयप्रबद्धोंकी अपेक्षा उक्त प्रकारसे अनन्तरोपनिधा नहीं बन सकती । यदि एक समयप्रबद्धको अपेक्षा यह अनन्तरोपनिधा मानी जाय तो यह मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि. एक तो मल और उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा प्रत्येक कर्मकी अपनी अपनी स्थितिके अनुसार अलग अलग आबाधा पडती है, दूसरे एक समय में आए हुए द्रव्यका बटवारा सर्वघाति और देशघातिरूपसे विभाग होकर भिन्न भिन्न प्रकारसे होता है, इसलिए न तो सब कर्मोकी निषेकरचना एक स्थानसे प्रारम्भ हो सकती है और न समानक्रमसे विभाग होकर सब कर्मोको द्रव्य ही मिल सकता है। अतः प्रथम स्थितिके प्रदेशाग्रसे द्वितीय स्थितिका प्रदेशाग्र, द्वितीय स्थिति के प्रदेशाग्रसे तृतीय स्थिति का प्रदेशाग्र विशेष हीन होता है इत्यादि क्रम नहीं बन सकता । यह मूल शंका है। इस शंकाका जो समाधान किया है उसका सार यह है कि यहाँ जो अनन्तरोपनिषाका कथन किया है वह एक समयमें आठों कर्मों और उनकी उत्तर प्रकृतियोंके लिए जो द्रव्य मिला है उस सबको मिलाकर कथन वहीं किया गया है किन्तु मिथ्यात्वको या अलग अलग प्रकृतिको ध्यान में रख कर ही यहां अनन्त रोपनिधाका कथन किया गया है, इसलिए शंकाकारने जो आपत्तियां उठाई हैं उनका परिहार हो जाता है ।
___ इस प्रकार अनन्तरोपनिधा समाप्त हुई। परम्परोपनिधाको अपेक्षा जो औदारिकशरीरवाला और वैक्रियिकशरीरवाला जीव है, प्रथम समयमें आहारक हुए और प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुए उसी जीवके द्वारा औदारिकशरीर और वैक्रियिकशरीररूपसे जो प्रथम समयमें प्रदेशाग्र निक्षिप्त होता है उससे अन्तर्मुहूर्त जाकर वह दुगणा हीन होता है।। २७२ ॥
इन दोनों शरीरोंका भवके प्रथम समयमें जो प्रदेशाग्र निषिक्त होता है उसे देखते हुए
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