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________________ ५, ६, २७४ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए परंपरोवणिधा (३४७ तत्तो अंतोमहत्तमवरि गंतूण णिसित्तं पदेसगं दुगुणहीणं होदि। किं पमाणमंतोमहत्तं? जिसेगमागहारस्स अद्धमेतं । पुणो दुगणहीणणिसेगावो उवरि तत्तियं चेव अवट्टिदमद्धाणं गंतूण जो अण्णो णिसेयो सो तत्तो दुगणहीणो होदि । एवं दुगुणहीणं दुगुणहीण जाव उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि ॥ २७३ ।। ___ अप्पिनअप्पिदगणहीणणिसेगादो उवरि अवट्टिदअंतोमहत्तमद्धाणं गंतूण द्विवणिसेगो दुगणहीणो होदि ति घेतव्वं । अवट्टिरमाणमिदि कथं णवदे ?' एवं' णिद्देसावो । एवं एवेण कमेण यन्वं जाव तिण्णं पलिदोवमाणं तेत्तीसं सागरोवमाणं चरिमदिदि ति । एगगुणहाणिअद्धाणपरूवणट्ठ+ णाणागुणहाणिसलागाणं पमाणपरूवणठं च उत्तरसुत्तमागदं-- एगपदेसगुणहाणिट्ठाणंतरमंतोमुहुत्तं जाणापदेसगुणहाणिट्ठाअंतराणि पलिदोवमस्स असंखेज्जविभागो ॥ २७४ ॥ उससे अन्तर्मुहुर्त प्रमाण काल ऊपर जाकर वहांकी स्थितिमें निषिक्त हुमा प्रदेशाग्र दुगुणा हीन होता है। शंका-- यहाँ अन्तर्मुहूर्तका क्या प्रमाण है ? समाधान - निषेक भागहारके अर्धभागप्रमाण है । पुनः द्विगुण हीन निषेकसे ऊपर उतना ही अवस्थित अध्वान जाकर जो अन्य निषेक है वह उससे दुगुणा हीन है । इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे तीन पल्य और तेतीस सागर होने तक दुगुणा हीन होता गया है ।। २७३ ॥ उत्तरोत्तर विवक्षित दुगुणे हीन निषेकसे ऊपर अवस्थित अन्तर्मुहूर्त अध्वान जाकर स्थित हुआ निषेक दुगुणा हीन होता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । शंका-- सर्वत्र अवस्थित अध्वान है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-- ' एवं ' पदके निर्देशसे जाना जाता है। इस प्रकार इस क्रमसे तीन पल्य और तेतीस सागरको अन्तिम स्थितिके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । अब एक गुणहानिअध्वानका कथन करनेके लिए और नाना गुणहानि शलाकाओंके प्रमाणका कथन करने के लिए आगेका सत्र आया है.. एकप्रवेशगुणहानिस्थानान्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है तथा नानाप्रदेशगणहानिस्थानान्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं ॥ २७४ ।। ४ ता० प्रतो 'णिद्देसादो । एवं एदेण ' इति पाठः। * प्रतिषु '-अद्धाणं परूवणहूँ ' इति पाठ: 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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