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________________ १३४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ६, ११६. दव्ववग्गणा होदि । तत्थेव एगादिअनंतेसु समागदेसु संघादेण अण्णा महाखंधदव्ववगणा होदि । अवकमेण उवचयावचयेहि वि भेदसंघादेण महाखंधदव्दवग्गणा होदि । एवं तीहि पयारेहि सव्वत्थ भेदसंघादस्स अत्थपरूवणा कायव्वा । उवरिमाणं भट्ठा अन्वग्गणुपत्ती भेदजणिदा णाम । हेट्टिमाणं वग्गणाणं समागमेण सरिसधणियसरूवेण अण्णवग्गणप्पत्ती संघादजा णाम । ण च एदाओ दो वि एत्थ अत्थि, वग्गगबहुत्ताभावादी । एत्रमेगसेडिवग्गणणिरुवणा समत्ता । संपहि णाणासेडिवग्गणाणिरूवणा एवं चैव कायव्या । का णाणासेडी णाम ? सरिसधणियाणं मुत्त/हलोलिसमाणपंतीयो णाणासेडि नाम । एवं वग्गणाणिरुवणेत्ति समत्तमणुयोगद्दारं । चोद्दस अणुयोगद्दारेसु दोष्णमणुयोगद्दाराणं परूवणं काऊ सेसवारसणमणुयोगद्दारा सुत्तकारण किमट्ठे परूवणा ण कदा |ण ताव अजाणतेण ण कढा; चवीस अणुयोगद्दार सरूवमहाकम्मपय डिपा हुडपारयस्त भूदबलिभयवंतस्स तदपरिविरोहादो | ण विस्सरणालुएण होंतेण ण कदा; अप्पमत्तस्स तदसंभवादो अन्य महास्कन्ध द्रव्यवर्गणा होती है । उसीमें एक आदि अनन्त परमाणु पुद्गलों के आ जानेपर संघातसे अन्य महास्कन्ध वर्गणा होती है । तथा एक साथ उपचय और अपचय होनेसे भेदसंघातसे महास्कन्धद्रव्यवर्गणा होती है । इस प्रकार सर्वत्र तीन प्रकारसे भेद-संघातकी अर्थ प्ररूपणा करनी चाहिए । उपरिम वर्गणाओंके भेदसे नीचे अपूर्व वर्गणाकी उत्पत्ति भेद जनित कही जाती है और नीचेकी वर्गणाओंके समागम से सदृशधनरूपसे अन्य वर्गणाकी उत्पत्ति संघात कही जाती है । परन्तु ये दोनों यहाँ पर नहीं हैं, क्योंकि, यहाँ पर बहुत वर्गणाओंका अभाव है । इस प्रकार एकश्रेणिवर्गणानिरूपणा समाप्त हुई । नानाश्रेणिवर्गणा निरूपणा इसी प्रकार करनी चाहिए। शंका- नानाश्रेणि किसे कहते हैं ? समाधान- सदृश धनवालोंकी मुक्ताफलोंकी पंक्तिके समान पंक्तिको नानाश्रेणि कहते हैं । इस प्रकार वर्गणानिरूपणा अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । शंका- सूत्रकारने चौदह अनुयोगद्वारों में से दो अनुयोगद्वारोंका कथन करके शेष बारह अनुयोगद्वारोंका कथन किस लिए नहीं किया है । अजानकार होनेसे नहीं किया है यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, चौबीस अनुयोगद्वारस्वरूप महाकर्मप्रकृति प्राभृतके पारगामी भगवान् भूतबलिको उनका अजानकार मानने में विरोध है । विस्मरणशील होनेसे नहीं किया है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, अप्रमत्तका विस्मरणशील होना सम्भव नहीं है । आ० प्रती ' योगद्दारा आ० प्रती ' सव्वत्थ भेदपरूवणा' इति पाठः । सुत्तकारेण इति पाठ: [ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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