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________________ ५, ६, ११६ ) बंधणाणुयोगद्दारे वग्गणाणिरूवणा समागमेण सुहमणिगोदवग्गणाए होदव्वमिदि । एत्थ परिहारो वच्चदे- जुत्तमेदं जदि पज्जवट्टियणओ अवलंबिदो होदि । द्वाणपरूवणाए पुण ण दोसो; पज्जवट्ठियणयावलंबणादो। एत्थ पुण दवट्टियणओ अवलंबिदो त्ति परमाणुरड्ढीए हाणीए वा ण वग्ग' णाए अण्णत्तं किंतु जीवाणं समागमेण भेदेण च सचित्तवग्गणप्पत्ती होदि । तेण हेट्टिल्लीणं दवाणं समागमेण सचित्तवग्गणाओ ण उप्पति त्ति भणिदं होदि। सुहमणिगोदवग्गणाणमुवरि महाखंधदव्ववग्गणा णाम कि भेदेण किं संघादेण किं भेदसंघादेण ॥ ११५ ॥ सुगमं। सत्थाणेण भेदसंघादेण ॥ ११६ ॥ हेट्रिमाणं संघादेण बिदियमहाखंधवग्गणा ण उप्पज्जदि; तिस्से सम्बद्धमेगवग्गणत्तादो। ण च एगादिपरमाणुपोग्गलेसु वड्डिदेसु अण्णा वग्गणा होदि; एववग्गणं मोत्तूण तत्थ बिदियवग्गणाणुवलंभादो। किंतु भेदसंघादेण होदि; पज्जवट्टियणयावलंबणादो . तं जहा- एगादिअणंतपरमाणुपोग्गलेसु महाखंधादो फट्टियगदेसु भेदेण अण्णा महाखंध समागमसे सूक्ष्म निगोदवर्गणा होनी चाहिए ? ___ समाधान-इस शकाका समाधान करते हैं-पर्यायाथिक नयका यदि अवलम्बन लिया जाय तो यह कहना युक्त है । फिर भी स्थानप्ररूपणामें कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वहाँ पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन लिया गया है । परन्तु यहाँ पर द्रव्याथिक नयका अवलम्बन लिया गया है, इसलिए परमाणुकी वृद्धि और हानिसे वर्गणामें अन्यपना नहीं आता, किन्तु जीवोंके समागम और भेदसे सचित्तवर्गणाकी उत्पत्ति होती है, इसलिए नीचे के द्रव्योंके समागमसे सचित्तवर्गणायें नहीं उत्पन्न होती यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सूक्ष्मनिगोदवर्गणाओंके ऊपर महास्कन्धद्रव्यवर्गणा क्या भेदसे होती है, क्या संघातसे होती है या क्या भेद-संघातसे होती है ॥ ११५ ॥ यह सूत्र सुगम है। स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे होती है ।। ११६ ॥ नीचेकी वर्गणाओंके संघातसे दूसरी महास्कन्धवर्गणा नहीं उत्पन्न होती है, क्योंकि, वह सर्वत्र एक वर्गणारूप है । एक आदि परमाणु पुद्गलोंके बढ़नेपर अन्य वर्गणा होती है यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, एक वर्गणाको छोड़कर वहाँ दूसरी वर्गणा नहीं पाई जाती । किन्तु वह भेद-संघातसे होती है, क्योंकि, यहाँ पर पर्यायाथिक नयका अवलम्बन लिया गया है। यथा-~ महास्कन्धसे एक आदि अनन्त परमाणु पुद्गलोंके विलग होकर चले जानेपर भेदसे आ० प्रती ' -अणंतपोग्गलेसु परमाणसु ४ ता० प्रती 'सव्वत्थ एग-' इति पाठ;] महाखंधादो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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