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________________ योगद्दारे सरीरपरूवणाए पदेसविरओ केत्तियमेत्तेण ? समऊणदसवस्ससहस्समेत्तेण । १६ । ५, ६, ३०४ ) एवं सत्थाणेण सोलसवदियमहादंडओ समत्तो । ( ३६१ एत्थ अप्पा बहुअं || ३०३ ॥ संपहि सत्थाणेण सोलसवदियअप्पाबहुअं काढूण परत्थाणेण सोलसवदियअपबहुअं भणामि त्ति भणिदं होदि । सव्वत्थोवं खुद्दाभवग्गणं ।। ३०४ ॥ एत्थ खुद्दाभवग्गहणं दुविहं- णिसेयखुद्दाभवग्गहणं घादखुद्दामवग्गहणं चेदि । कितनी अधिक ? एक समय कम दस हजार वर्षप्रमाण अधिक है विशेषार्थं - - यहाँ पर प्रदेशविरच अधिकारके प्रसंगसे निर्वृत्तिस्थानों और जीवनीयस्थानोंका सांगोपांग विचार किया गया है। एक जीवके जितनी आयुका बन्ध होता है उसकी निर्वृत्तिस्थान संज्ञा है और एक जीव भवग्रहण के प्रथम समयसे लेकर जितने काल तक जीवित रहता है उसकी जीवनीयस्थान संज्ञा है । यह एकांत नियम नहीं है कि जिस भवकी जितनी आयुका बंध होता है वह उस भवके ग्रहणके समय उतनी नियमसे रहती है । यदि आयुबन्धके भवमें उसका अपवर्तन न हो या द्वितीयादि त्रिभागों में अधिक आयुका बंध न हो तो भवग्रहण के समय उतनी ही रहती है और यदि पूर्वोक्त क्रिया हो लेती है तो वह घट बढ़ भी जाती है । इस प्रकार भवग्रहण करने के बाद यदि कवलीघात न हो तो भवग्रहण के समय जितनी आयु होती है उतने काल तक यह जीव जीवित रहता है, अन्यथा कदलीघात होनेसे जीवन काल अल्प हो जाता है, इसलिए यहाँ निर्वृत्तिस्थानों और जीवनीयस्थानोंका अलग अलग विचार करके ये कहाँ जघन्य और उत्कृष्ट किस प्रमाणमें प्राप्त होते हैं तथा इनका परस्परमें अल्पबहुत्व कितना है आदि बातोंका यहाँ सांगोपांग विचार किया गया है। यहाँ एकेन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य निर्वृत्ति और जघन्य जीवनीयस्थानका स्पष्टीकरण करते हुए दो मतों का उल्लेख किया है । उनका आशय इतना ही है कि एक मत के अनुसार जघन्य पर्याप्त निर्वृत्तिका जितना काल है उसमें से आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका घात हो कर जघन्य जीवनीय स्थान प्राप्त होता है और दूसरे मतके अनुसार यह घात काल संख्यात आवलि प्रमाण तक हो सकता है । किन्तु इतना विशेष जानना चाहिए कि जो जघन्य पर्याप्त निर्वृत्तिको लेकर उत्पन्न होता है उसके यह कदलीघात हो कर जघन्य जीवनीस्थान नहीं प्राप्त होता किन्तु जघन्य पर्याप्त निर्वृत्तिस्थानसे अधिक आयु लेकर उत्पन्न होनेवाले जीवके ही यह जघन्य जीवनीयस्थान प्राप्त होता है । विशेष स्पष्टीकरण मूलमें किया ही है । इस प्रकार स्वस्थान की अपेक्षा सोलह पदवाला महादण्डक समाप्त हुआ । यहाँ अल्पबहुत्व | ३०३ । स्वस्थानकी अपेक्षा सोलह पदवाले अल्पबहुत्वका कथन कर अब परस्थानकी अपेक्षा सोलह पदवाले अल्पबहुत्वका कथन करते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । क्षुल्लकभवग्रहण सबसे स्तोक है । ३०४ । Jain Education International यहाँपर क्षुल्लकभवग्रहण दो प्रकारका है- निषेक क्षुल्लकभवग्रहण और घात क्षुल्लक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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