SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 573
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४० ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, ७०४ सम्मच्छिमपंचिदियपज्जत्तयस्स बंधेण जहणिया पज्जत्तणिवत्ती अंतोमुहुत्तमेत्ता होदि । पुणो तिस्से उवरि समउत्तर-दुसम उत्तरादिकमेण बावीसवस्ससहस्साणि बोलेदूण सम्मुच्छिमचिदियपज्जत्तयस्त पुव्वको डिमेत्ता बंधेण उक्कस्सिया णिवत्ती होदि। तदो तिण्णि पलिदोवमाणि गंतण गब्भोवक्कंतियस्स उक्कस्सिया पज्जत्तणिवत्ती ।। ७०४॥ गब्भोवक्कंतियस्स जहणिया पज्जत्तणिवत्ती अंतोमहुत्तिया । पुणो तिस्से उवरि समउत्तरादिकमेण पुवकोडि बोलेर्ण तिण्णिपलिदोवममेत्ता गम्भोवक्कंतियस्स बंधेण उक्कस्सिया पज्जत्तणिवत्ती होदि । तदो तेत्तीसं सागरोवमाणि गंतूण ओववादियस्स उक्कस्सिया पज्जतणिवत्ती ।। ७०५ ॥ ओववादियस्स जहणिया पज्जत्तणिवत्ती दसवाससहस्समेत्ता । तिस्से उरि समउत्तरादिकमेण तिणि पलिदोवमाणि बोलेदूण ओवादियाणं तेत्तीससागरोवममेत्ती उक्कस्सिया पज्जत्तणिवत्ती होदि । एसा सव्वा वि परूवणा ण परवेयव्वा, सम्मच्छिम पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकी बन्ध की अपेक्षा जघन्य पर्याप्त निर्वृत्ति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होती है। पुन: इसके ऊपर एक समय अधिक, दो समय अधिक आदिके क्रमसे बाईस हजार वर्ष बिताकर आगे सम्मच्छिम पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकी बन्धकी अपेक्षा पूर्वकोटिप्रमाण उत्कृष्ट पर्याप्त निर्वृत्ति होती है। फिर तीन पल्य जाकर गर्भोपक्रान्त जीवकी उत्कृष्ट पर्याप्त निर्वृत्ति, होती है । ७०४ । गर्भोपक्रान्त जीवकी जघन्य पर्याप्त निर्वत्ति अन्तर्महर्तप्रमाण होती है। पुन: इसके ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रमसे पूर्वकोटिप्रमाण बिताकर गर्भोपक्रान्त जीवकी बन्धकी अपेक्षा तीन पल्यप्रमाण उत्कृष्ट पर्याप्त निर्वृत्ति होती है। फिर तेतीस सागर जाकर औपपादिक जीवको उत्कृष्ट पर्याप्त निर्वत्ति होती है ।। ७०५ ॥ औपपादिक जीवकी जघन्य पर्याप्त निर्वृत्ति दस हजार वर्षप्रमाण है। उसके ऊपर एक समय अधिक आदिके क्रमसे तीन पल्य बिता कर औपपादिक जीवोंकी तेतीस सागरप्रमाण उत्कृष्ट पर्याप्त निर्वृत्ति होती है। शंका-- यह सब प्ररूपणा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, सोलहपदिक महादण्डकमें जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy