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________________ ३०८) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६, १९३ सांतराणं णिरंतरवक्कमणकालसहिदंतरेण सगढिविमोवट्टिय णिरंतरुवक्कमणकालेण गुणिदे सव्वुक्कमणकालो होदि तेण सगसगददे भागे हिदे एगसमयसंचिवविसरीर. जीवपमाणं होदि। तिसरीरा असंखेज्जगुणा ।। १९३ ॥ को गुण० ? णिरंतररासीसु संखेज्जावलियाओ । अण्णत्थ आवलि. असंखे० भागो। पंचिदिय-चिदियपज्जत्ता मणुसगदिभंगो । १९४ ॥ कुदो ? सव्वत्थोवा चदुसरीरा । विसरीरा असंखेगुणा । तिसरीरा असंखेज्जगुणा इच्चेदेहि भेदाभावादो । पज्जवटियणए पुण अवलंबिदे अस्थि भेदो कुदो? मणुस्सेसु संखेज्जाणं चदुसरीराणं पंचिदिएसु असंखेज्जाणमुवलंभादो । ___कायाणुवावेण पुढविकाइया आउकाइया वणप्फविकाइया णिगोवजीवा बादरा सहमा पज्जत्ता अपज्जत्ता बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरा पज्जत्ता अपज्जत्ता बावरतेउकाइय-बादरवाउकाइयअपज्जत्ता सहमतेउकाइय-सहमवाउकाइयपज्जत्ता अपज्जत्ता तसकाइयअपज्जत्ता भाग देनेपर एक समय में संचित हुए दो शरीरवालोंका प्रमाण होता है। सांतरराशियोंमे निरंतर उपक्रमण कालसे सहित अन्तरसे अपनी स्थितिको भाजित कर जो लब्ध आवे उसे निरन्तर उपक्रमण कालसे गुणित करने पर सब उपक्रमणकालका प्रमाण होता है, पुनः उससे अपने अपने द्रव्यके भाजित करने पर एक समयमें संचित हुए दो शरीरवाले जीवोंका प्रमाण होता है। उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगणे हैं ॥१९३।। गुणकार क्या है ? निरन्तर राशियों में संख्यात आवलियां गुणकार है। अन्यत्र आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है। पञ्चेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रियपर्याप्तकोंमें मनुष्यगतिके समान भङग है । १९४। क्योंकि, चार शरीरवाले जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे दो शरीरवाले जीव असंख्यातगुणे हैं और उनसे तीन शरीरवाले जीव असंख्यातगणे हैं, इस अल्पबहुत्वसे यहां कोई भेद नहीं है। परन्तु पर्यायाथिकनयका अवलम्बन करने पर भद है ही, क्योंकि, चार शरीरवाले जीव मनुष्यों में संख्यात और पञ्चेन्द्रियोंमें असंख्यात उपलब्ध होते हैं। कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक, निगोदजीव, उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बावर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक और वायुकायिक तथा उनके पर्याप्त 8 प्रतिष ' -सचिदसरीर- ' इति पाठः । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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