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________________ ( ३५३ ५, ६, २८९ ) बंघणानुयोगद्दारे सरीरपरूवणाए पवेसविरओ घेपदि ? सुहुमेइं दियपज्जत्तयस्स जहण्णणिव्वत्ती घेत्तव्वा । दोण्णमपज्जत्ताणं जहवित्तीओ किण्ण घेष्पंति ? ण, तत्तो उवरि निव्वत्तिट्ठाणाणं निरंतरकमेण गमनाभावादो । बादरेइंदियस्स पज्जत्तयस्त जहण्णणिव्वत्ती किण्ण घेप्पदे ? ण, सुहुमे इंदियपज्जत्तयस्स जहण्णणिव्वत्तदो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतून ट्टिबबाद रेइं दियजहण्णपज्जत्तणिव्वत्तीए एइंदियजहण्णणिव्वत्तित्तविरोहादो । एसा जहणिया वित्ती किमाउअस्स जहण्णबंधो आहो जहग्णसंतमिदि ? जहण्णबंधो घेत्तव्वो ण जहण्णं संतं । कुदो ? जीवणियद्वाणाणं विसेसाहियत्तण्णहाणुववत्तदो । १ । व्वित्तिट्ठाणाणि संखेज्जगुणापि ॥ २८९ ॥ तं जहा - सुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स जो जहण्णाउअबंधो सो सव्वो एगं निव्वत्तिद्वाणं । तम्हि चेव समउत्तरं पबद्धे बिदियं निव्वत्तिद्वाणं पुणो दुसमउत्तरं पबद्धे तदियं व्वित्तिद्वाणं । एवं तिसमउत्तर- चदुसमउत्तरादिकमेण निरंतरं निव्वत्तिद्वाणाणि ताव लब्भंति जाव बावीसं वस्ससहस्साणि ति । एदेहितो उवरि ण लब्भंति, एइंदियेसु वावीसवस्सस हस्से हितो अहियआउअबंधाभावादो | समऊणजहण्णणिव्वत्तीए बावीसवस्ससहस्सेसु अवणिदाए णिव्वत्तिद्वाजाणं पमाणं होदि । एवं होदि ति कादूण प्रकारके हैं। उनसे किसकी जघन्य निर्वृत्ति ग्रहण करते हैं ? अभाव समाधान -- सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य निर्वृत्ति ग्रहण की जानी चाहिए। शंका-- दोनों अपर्याप्तकोंकी जघन्य निर्वृत्तियाँ क्यों नहीं ग्रहण करते ? समाघान -- नहीं, क्योंकि, उनसे ऊपर निर्वृत्तिस्थानोंकी निरन्तर क्रमसे प्राप्तिका 1 शंका -- बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकी जघन्य निर्वृत्ति क्यों नहीं ग्रहण करते ? समाधान-- नहीं, क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तककी जघन्य निर्वृत्तिसे ऊपर अन्तर्मुहूर्त जाकर स्थित हुई बादर एकेन्द्रियकी जघन्य पर्याप्त निर्वृत्तिको एकेन्द्रियकी जघन्य निर्वृत्ति होने में विरोध है । शंका-- यह जघन्य निर्वृत्ति क्या आयुकर्मका जघन्य बन्ध है या जघन्य सत्त्व है ? समाधान -- जघन्य बन्ध ग्रहण करना चाहिए जघन्य सत्त्व नहीं, क्योंकि, अन्यथा जीवनीयस्थान विशेष अधिक नहीं बन सकते । उससे निर्वृत्तिस्थान संख्यातगुणे हैं ।। २८९ ॥ यथा - सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकका जो जघन्य आयुबन्ध है वह सब एक निर्वृत्तिस्थान है । एक समय अधिक उसीका बन्ध होने पर दूसरा निर्वृत्तिस्थान होता है । पुनः दो समय अधिaar बन्ध होनेपर तीसरा निर्वृत्तिस्थान होता है। इस प्रकार तीन समय अधिक और चार समय अधिक के क्रमसे निरन्तर निर्वृत्तिस्थान बाईस हजार वर्षके प्राप्त होने तक लब्ध होते हैं । इनसे ऊपर नहीं प्राप्त होते, क्योंकि, एकेन्द्रियों में बाईस हजार वर्ष से अधिक आयुबन्ध नहीं होता । बाईस हजार वर्षों में से एक समय कम जघन्य निर्वृत्तिके घटा देनेपर निर्वृत्तिस्थानों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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