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________________ ५, ६, १६७, ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए खेत्तपरूवणा (२५३ खेत्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण बिसरीरा तिसरीरा केवडि खेत ? सव्वलोगे। चदुसरीरा केवडि खेत्ते? लोगस्स असंखे० भागे। ___ आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए रइएसु बिसरीरा तिसरीरा केवडि खेत्ते? लोगस्स असंखे० भागे। एवं सत्तसु पुढवीसु णेयव्वं । तिरिक्खगदीए तिरिक्खकायजोगि-णवंसयवेद-कोह-माण-माया-लोहकसाइ-मदि-सुदअण्णाणि-असंजद-अचक्खुदंसणि-- किण्ण-गील काउलेस्सिय-भवसिद्धिय-अभवसिद्धिय-मिच्छाइट्ठि-असण्णीसु ओघं। पंचि दियतिरिक्खतिग-इत्थि-पुरिसवेद-आभिणि-सुद-ओहिणाणि-चक्खुदंसणि-ओहिदंसणि तेउ-पम्मलेस्सिय-वेदग-उवसमसम्माइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-सण्णीसु बिसरीरा तिसरीरा चदुसरीरा केवडि खेत्ते? लोगस्स असंखे० भागे। पंचिदियतिरिक्खअपज्जत्तहैं ? अनन्त हैं। चार शरीरवाले द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं । अनाहारकोंमें कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भंग है । इस प्रकार द्रव्यप्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई। क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश । ओघसे दो शरीरवाले और तोन शरोरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोकप्रमाण क्षेत्र है। चार शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। विशेषार्थ - दो शरीरवाले कार्मणकाययोगी होते हैं और तीन शरीरवाले प्रायः आहारक होते हैं। इनका क्षेत्र सर्वलोकप्रमाण होनेसे यहां दो शरीरवाले और तोन शरीरवाले जीवोंका सर्वलोकप्रमाण क्षेत्र कहा है । तथा चार शरीरवाले वे ही होते हैं जो औदारिकशरीरसे या तो विक्रिया कर रहे हैं या आहारक ऋद्धि के उपस्थापक है । ऐसे जीव लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें ही पाये जादे हैं, इसलिए ओघसे चार शरीरवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। यद्यपि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कहा है परन्तु उनमें विक्रिया करनेवाले जीव स्वल्प होनेसे उनका वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण हो प्राप्त होता है। आगे भी इन्हीं विशेषताओंको ध्यान में रखकर और अपना अपना क्षेत्र जानकर वह ले आना चाहिए। यदि कहीं कोई विशेषता होगी तो उसका हम अलगसे निर्देश करेंगे। आदेशसे गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिकी अपेक्षा नारकियोंमें दो शरीरवाले और तीन शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इस प्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। तिर्यंचगति की अपेक्षा तिर्यंचोंमें तथा काययोगो, नपुंसकवेदी, क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाल, लोभकषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदशनी, कृष्ण लेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य अभव्य, मिथ्यादृष्टि ओर असंज्ञी जोवोंमें ओघ के समान भंग है । पंचेन्द्रियतिर्यंचत्रिक, स्त्रीवेदी, पुरूष वेदी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी, अवधिज्ञानी, चक्षदर्शनो, अवधिदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और संज्ञी जीवोमें दो शरीरवाले, तीन शरोरवाले और चार शरीरवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है? लोकके असंख्यातवें सअ० प्रतौ ' तिसरीरा दव०प० के० खेत्ते ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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