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________________ ३२२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ६ २३७ वणटुं च गुणगारो वच्चदे । जहण्णक्कस्सादिपदपरिक्खटं पदमीमांसा बुच्चदे । पंचण्णं सरीराण पदेसग्गथोवनहुत्तजाणावणटुमप्पाबहुअं वुच्चदे । एदेहि छहि अणुयोगद्दारेहि विणा सरीरपरूवणाणुववत्तीदो । एत्थ एदेहि परूवणा कीरदे णामणिरुत्तीए उरालमिदि ओरालियं ।। २३७ ।। उरालं थलं वटुं महल्लमिदि* एयट्ठो । कुदो उरालतं? ओगाहणाए । सेस. सरीराणं ओगाहणादो एदस्स सरीरस्स ओगाहणा बहुआ त्ति ओरालियसरीरमराले त्ति गहिदं । कुदो बहुत्तमवगम्मदे? महामच्छोरालियसरीरस्त पंचजोयणसदविक्खंभेण जोयणसहस्सायामदंसणादो। 'इदि' सद्दो हेदु-विवक्खाणमववत्तीदो उरालमेव ओरालि यमिदि सिद्ध। अथवा सेससरीराणं वग्गणोगाहणादो ओरालियसरीरस्स वग्गणओगाहणा बहुआ त्ति ओरालियवग्गणाणमुरालमिदि सण्णा । ओरालियवग्गणोगाहणाए बहुतं कुदो नवदे ? चूलियअप्पाबहुआदो । तं जहा- सव्वत्थोवाओ जघन्यपद और उत्कृष्टपद आदिकी परीक्षा करने के लिए पदमीमांसा अधिकारका कथन करते हैं। पाँच शरीरोंके प्रदेशोंका अल्पबहुत्व जानने के लिए अल्पबहुत्व अधिकारका कथन करते हैं। इन छह अनुयोगद्वारोंके बिना शरीरप्ररूपणा नहीं हो सकती, इसलिए यहाँ इनके द्वारा प्ररूपणा करते हैं-- नामनिरुक्तिकी अपेक्षा उराल है इसलिए औदारिक है ।। २७३ ।। उराल, स्थूल, और महान् ये एकार्थवाची शब्द हैं । शंका-- यह उराल क्या है ? समाधान-- अवगाहनाकी अपेक्षा उराल है। शेष शरीरोंकी अवगाहनासे इस शरीरकी अवगाहना बहुत है, इसलिए औदारिकशरीर उराल है ऐसा ग्रहण किया है। शंका-- इसकी अवगाहनाके बहुत्वका ज्ञान कैसे होता है ? समाधान-- क्योंकि, महामत्स्यका औदारिकशरीर पाँचसौ योजन विस्तारवाला और एक हजार योजन आयामवाला देखा जाता है। सूत्रमें आया हुआ — इति' शब्द हेतुवाची और विवक्षावाची बन जाता है, इसलिए उराल ओरालिय है ऐसी उसकी निरुक्ति सिद्ध होती है। अथवा शेष शरीरोंकी वर्गणाओंकी अवगाहनकी अपेक्षा औदारिकशरीरकी वर्गणाओंकी अवगाहना बहुत है इसलिए औदारिकशरीरकी वर्गणाओंकी उराल ऐसी संज्ञा है। शंका-औदारिकशरीरकी वर्गणाओंको अवगहना बहुत है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-चूलिकाके अल्पबहुत्वसे जाना जाता है । यथा-कार्मणशरीरको द्रव्यवर्गणायें प्रतिषु 'ओरालियं *म० प्रतिपाठोऽयम् । ता० का० प्रत्यो ' बहल्लमिदि' इति पाठ:1 तसद्धा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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