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________________ २४४) छक्खंडागमे वग्गणा - खंड (५, ६, १४७ आहारकायजोगी आहारमिस्सकायजोगी अस्थि जीवा चदु सरोरा ॥ १४७ ॥ तत्थ बिसरीरा णत्थि, विग्गहगदीए अभावादो। ण तिसरीरा वि, ओरालियआहार-तेजा-कम्मइयाणं चदुण्हं सरीराणं तत्थुवलंभादो । ण च ओरालियस रीरस्स उदओ णत्थि त्ति तत्थाभावो वोत्तुं सक्किज्जदे, तत्थ तदुदयसत्तीए संभवादो । कम्मइयकायजोगी रइयाणं भंगो ।। १४८ ।। होदु णाम एदेसि बिसरीरत्तं विग्गहगदीए तेजा - कम्मइयसरीराणमुदयदंसणादो, कथं पुण तिसरीरत्तं ? ण, पदर - लोगपूरणाणं गदकेवलिम्हि तेजा - कम्मइयएहि सह ओरालियसरीरस्स उवलंभादो । वेदानुवादेण इत्थवेदा पुरिसवेदा णवुंसयवेदा ओघं ॥ १४९ ॥ तत्थ बिसरीर-तिसरीर-चदुसरीराणमुवलंभादो । इत्थि - णवुंसयवेदेसु आहारआहारक काययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीव चार शरोरवाले होते हैं ॥ १४७ ॥ इन में दो शरीरवाले नहीं होते, क्योंकि, यहाँ विग्रहगतिका अभाव है । तीन शरीरवाले भी नहीं होते, क्योंकि, आदारिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीर ये चार शरीर इनमें पायें जाते हैं । यदि कहा जाय कि औदारिकशरीरका उदय नहीं होता, इसलिए वहाँ इसका अभाव कहना शक्य है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, वहाँ उसके उदय होने की शक्ति सम्भव है | विशेषार्थ - जिस समय प्रमत्तसंयत जीव आहारक शरीरका प्रारम्भ करता है उस समय से लेकर आहारक शरीरकी क्रिया समाप्त होनेतक उसके औदारिकशरीर नामकर्मका उदय नहीं होता, इसलिए वहाँ औदारिकशरीर का अभाव नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि, एक तो उसके औदारिकशरीरके पुनः उदय होने की शक्ति विद्यमान है । दूसरे उसके औदारिकशरीर के उदय का फल औदारिकशरीर पूर्ववत् विद्यमान रहता है, इसलिए आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाय योगी जीव के चार शरीर कहे हैं । कार्मणका योगी जीवोंमें नारकियोंके समान भंग है ।। १४८ ॥ शंका- इनके दो शरीर होवें, क्योंकि, विग्रहगति में तैजसशरीर और कार्मणशरीरका उदय देखा जाता है । तीन शरीर कैसे हो सकते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रतर और लोकपूरण समुद्घातको प्राप्त हुए केवली जिनके तैजसशरीर और कार्मणशरीर के साथ आदारिकशरीर भी उपलब्ध होता है । वेदमार्गणाके अनुवाद से स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें ओघके समान भंग है ॥ १४९ ॥ क्योंकि, इन जीवों में दो शरीर, तीन शरीर और चार शरीर उपलब्ध होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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