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________________ बंधाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणाए संतपरूवणा (२४५ सरुदयाभावादो णत्थि चदुसरीरत्तं ? ण, तत्थ वि विउव्विदुत्तरसरीरेसु चदुसरीर वलंभादो । ५, ६, १५२. ) कसायाणुवादेण कोधकसाई माणकसाई मायकसाई लोभकसाई ओघं ॥ १५०॥ सुगममेदं, बिसरीर - तिसरीराणं दोपयारेहि चदुसरीराणं च उवलंभादो । अवगदवेदा अकसाई अत्थि जीवा तिसरीरा ॥ १५१ ॥ काणि तिणि सरीराणि ? ओरालिय-तेजा - कम्मइयसरीराणि । बिसरीरा णत्थि, तत्थ अपज्जत्तकालाभावादो । चदुसरीरा वि णत्थि, विउव्वणाहारसरीरुट्ठावणवावाराणं तत्थाभावादो । णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी ओघं ॥ १५२॥ कथमेत्थ असरीरत्तं, ण आहारतं, ण चदुसरीरतं ? ण विउव्वणमस्सिदृण तदुवलंभादो । शंका- स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें आहारकशरीरका उदय नहीं होनेसे चार शरीर नहीं होते ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उनमें भी उत्तर शरीरकी विक्रिया करनेपर चार शरीर उपलब्ध होते हैं । कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाले और लोभकषायवाले जीवोंमें ओघके समान भंग है ॥ १५० ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले और दो प्रकारसे चार शरीरवाले जीव यहाँ उपलब्ध होते हैं । अपगतवेदी और अकषायवाले जीव तीन शरीरवाले होते हैं ।। १५१ ॥ शंका- तीन शरीर कौन हैं ? समाधान - औदारिक, तेजस और कार्मण ये तीन शरीर हैं । दो शरीरवाले जीव नहीं होते, क्योंकि, इनमें अपर्याप्त कालका अभाव है । चार शरीरवाले भी नहीं होते, क्योंकि, विक्रियारूप और आहारकशरीरके उपस्थापन रूप व्यापारका वहाँ अभाव है । ज्ञानमार्गणा अनुवाद से मत्यज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवोंमें ओघके समान भंग है ॥ १५२ ॥ शंका- यहां अशरीरपना कैसे सम्भव है, आहारकशरीरपना भी नहीं है और चार शरीरपना भी नहीं हैं, इसलिए ओघ के समान भंग कैसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, विक्रियाका आश्रय लेकर चार शरीरपने की उपलब्धि हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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