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________________ ५, ६, १२७ ) बंधणाणुयोगद्दारे सरीरिसरीरपरूवणा पढमसमए उप्पज्जति । तत्थ चेव विदियसमए असंखेज्जगुणहीणा उप्पज्जति । एवमसंखेज्जगुणहीणाए सेडीए ताव णिरंतरमुप्पज्जति जाव आवलियाए असंखे०भागमेत्तकालो ति । पुणो एक्कदोतिण्णिसमए आदि कादूण जावुक्कस्सेण आवलियाए असंखे०भागमेत्तकालमंतरिदूण पुणो एगवेतिण्णिसमए आदि कादूण जावुक्कस्सेण आवलियाए असंखे०भागमेत्तकालं णिरंतरं उप्पज्जंति एवं सांतरणिरंतरकमेण ताव उप्पजति जाव उप्पत्तीए संभवो अस्थि । एवमेदेण कमेणुप्पण्णबादरसुहमणिगोदजीवा एक्कम्हि सरोरे बद्धा पुट्टा च होदूण अच्छंति त्ति भणिदं होदि । जीवरासी आयवज्जिदो सव्वओ तत्तो णिन्वुइमुवगच्छंतजीवाणमुवलंभादो। तदो संसारिजीवाणमभावी होदि त्ति भगिदे ण होदि । अलद्धतसभावणिगोदजीवाणमणंताणं संभवो होदि त्ति जाणावगट्टणुत्तरसुत्तं भणदि अत्थि अणंता जीवा जेहि ण पत्तो तसाण परिणामो। भाबकलंकअपउरा णिगोदवासं गं* मुंचंति ॥१७२।। जेहि अदीदकाले कदाचि वि तसपरिणामो ण पत्तो ते तारिसा अणंता जीवा णियमा अस्थि, अण्णहा संसारे भव्वजीवाणभावावत्तीदो । ण चाभावो, तदभावे निगोद जीव और सूक्ष्मनिगोद जीव प्रथम समय में उत्पन्न होते हैं । वहीं पर द्वितीय समयमें असंख्यातगुणे हीन उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल व्यतीत होने तक असंख्यातगुणे हीन श्रेणिरूपसे निरन्तर जीव उत्पन्न होते हैं । पुनः एक, दो और तीन समयसे लेकर उत्कृष्ट रूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका अन्तर देकर पनः एक, दो और तीन समयसे लेकर उत्कृष्टरूपसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक निरन्तर जीव उत्पन्न होते हैं इस प्रकार सान्तर-निरन्तरक्रमसे तब तक जीव उत्पन्न होते है जब तक उत्पत्ति सम्भव है । इस प्रकार इस क्रमसे उत्पन्न हुए बादरनिगोद जीव और सूक्ष्मनिगोद जीव एक शरीरमें बद्ध और स्पृष्ट होकर रहने हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । जीवन राशि आयसे रहित है और व्ययसहित है, क्योंकि, उसमेंसे मोक्षको जाने वाले जीव उपलब्ध होते हैं। इसलिये संसारी जीवोंका अभाव प्राप्त होता है ऐसा कहने पर उत्तर देते हैं कि नहीं होता है, क्योंकि, त्रसभावको नहीं प्राप्त हुए अनन्त निगोद जीव सम्भव हैं, अतः इस बातका ज्ञान कराने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं - जिन्होंने अतीत कालमे त्रसभावको नहीं प्राप्त किया है ऐसे अनन्त जीव हैं। क्योंकि वे भावकलंकप्रचुर होते हैं, इसलिए निगोदवासको नहीं त्यागते ॥१२७॥ जिन्होंने अतीत काल में कदाचित् भी सपरिणाम नहीं प्राप्त किया है वे वैसे अनन्त जीव नियमसे हैं अन्यथा संसारमें भव्य जीवोंका अभाव प्राप्त होता है। और उनका अभाव है *ताप्रती 'भावकलंकअ (ल) पउरा णिगोदजीवा (वास)ण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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