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________________ ३१. ) योगद्दारे दव्वबंधपरूवणा ( २९ जो सो अणावियविस्ससाबंधो नाम सो तिविहो -- धम्मत्थिया अधम्मत्थिया आगासत्थिया चेदि ।। ३० ॥ जीवत्थिया पोग्गलत्थिया एत्थ किरण परुविदा ? ण, तासि सक्किरियाणं सगमगाणं धम्मत्थियादीहि सह अणादियविस्ससाबंधाभावादो । ण तासि पदेसबंधो वि अगादयो वइससियो अस्थि; पोग्गलत्तण्णहाणुववत्तीदो तप्पदेसाणं पि संजोग - विजोयसिद्धीए । एक्केक्को दव्वबंधो तिविहो होदि त्ति जाणावणदृमुत्तरसुतं भणदि धम्मत्थिया धम्मत्थियदेसा धम्मत्थियपदेसा अधम्मत्थिया अधम्मत्थियदेसा अधम्मत्थियपदेसा आगासत्थिया आगासत्थियदेसा आगासत्थियपदेसा एदासि तिष्णं पि अत्थआणमरणोण्णपदेसबंधो होदि ।। ३१ ।। जो अनादि वित्रसाबन्ध है वह तीन प्रकारका है- धर्मास्तिकविषयक, अधर्मास्तिकविषयक और आकाशास्तिकविषयक ॥। ३० ।। ५, शका - यहाँ जीवास्तिक और पुद्गलास्तिकविषयक अनादि विस्रसाबन्ध क्यों नहीं कहा ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उनकी अपनी गमन आदि क्रियाओंका धर्मास्तिक आदिके साथ अनादिसे स्वाभाविक संयोग नहीं पाया जाता । यदि कहा जाय कि उनका प्रदेशबन्ध तो अनादिसे स्वाभाविक है सो यह बात भी नहीं है, क्योंकि, यदि ऐसा माना जायगा तो पुद्गलो में पुद्गलत्व नहीं बनेगा और पुद्गल तथा जीवोंके प्रदेशोंका भी संयोग और वियोग अनुभव सिद्ध है, अत: इनका अनादि विस्रसाबन्ध नहीं कहा है । विशेषार्थ -- यहाँ धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यका अनादि विस्रसाबन्ध बतलाया है । प्रश्न यह है कि ऐसा बन्ध पुद्गल और जीवोंका क्यों नहीं कहा । इसका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि एक तो जीव और पुद्गलकी जो गति, स्थिति और अवगाहन क्रिया होती वह बदलती रहती है । दूसरे पुद्गलके परमाणुओंका परस्पर बन्ध भी अनादिकालीन नहीं बन सकता है | और तीसरे पुद्गलों और जीवोंके प्रदेशोंका संयोग और वियोग भी होता रहता है। न तो इन दोनों द्रव्योंका अन्यसे संयोग अनादि और वैस्रसिक है और न स्वयं अपने प्रदेशों का संयोग भी ऐसा है, इसलिये इनके सम्बन्धको अनादि विस्रसाबन्ध में सम्मिलित नहीं किया है । माना कि जीवके प्रदेशों में विभाग नहीं होता, पर वे सदा धर्मादिक द्रव्योंके समान एक आकार में स्थिर नहीं रहते, इसलिये इसका भी अनादि विस्रसाबन्ध नहीं माना है । एक एक द्रव्यबन्ध तीन प्रकारका है यह ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं-धर्मास्तिक, धर्मास्तिकदेश और धर्मास्तिकप्रदेश; अधर्मास्ति, अधर्मास्तिकदेश और अधर्मास्तिक प्रदेश तथा आकाशास्तिक, आकाशास्तिकदेश और आकाशास्तिकप्रदेश; इन तीनों ही अस्तिकायोंका परस्पर प्रदेशबन्ध होता है ।। ३१ ॥ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु धम्मत्थिया धम्मत्थियपदेसा अधम्मत्थिया अधम्मत्थियपदेसा आगत्या आगासत्थियपदेसा एदासि इति पाठ: । ताप्रती तु 'धम्मत्थिय देसा' आदीनि कोष्ठकान्तर्गतानि सन्ति 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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