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________________ ५, ६, ११३. ) बंधणाणुयोगद्दारे वग्गणाणिरुवणा ( १३१ बादरणिगोदवग्गणसरूवेण परिणामविरोहादो सुहुमणिगोदेहितो आगंतूण बादरणिगोदेसु उप्पण्णेहि चेव जीवेहि आरद्धबादरणिगोदवग्गणाए अभावादो वा । कुदो एदं णव्वदे? उवरिल्लीणं भेदेण णत्थि ति वयणादो । महाखंधदव्ववग्गणाए भेदेण बादरणिगोदवग्गणा ण उप्पज्जदि; तिस्से विणासाभावादो अचित्तस्स सचित्तभावेण परिणामविरोहादो च । सत्थाणेण भेदसंघादेणेव बादरणिगोदवग्गणा होदि । सुहुमनिगोदेहितो पत्तेयसरीरेहितो चेव आगदेहि जीवेहि बादरणिगोदजीवेहिं च एगेगा बादरणिगोदवग्गणा णिप्पज्जदित्ति भणिदं होदि । बादरणिगोदेहितो जेण सुहुमणिगोदा असंखेज्जलोगगुणा तेण एगबादरणिगोदवग्गणा सुद्धेहि सुहुमणिगोदेहि चेव आरद्धेत्ति भणिदे को दोसो ? ण, एगसुहुमणिगोदवग्गणट्ठियजीवाणमणंतिमभागाणं चेव बादरणियोदेसु संचारुवलंभादो । बादरणिगोददव्वग्गणाणमुवरि सुहुमणिगोददन्ववग्गणा णाम किं भेदेण किं संघादेण किं भेदसंघादेण ॥ ११३ ॥ सुगमं । परिणमन होने में विरोध है । तथा जो जीव सूक्ष्म निगोदोंमेंसे आकर बादरनिगोदों में उत्पन्न होते हैं उनके द्वारा आरम्भ की गई बादरनिगोदवर्गणाका अभाव है | शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- उपरिम वर्गणाओंके भेदसे नहीं होती इस वचनसे जाना जाता है । महास्कन्धद्रव्यवर्गणा के भेदसे बादरनिगोदवर्गणा नहीं उत्पन्न होती है, क्योंकि, एक तो उसका विनाश नहीं होता। दूसरे अचित्तका सचित्तरूपसे परिणमन होने में विरोध है ।" इसलिए स्वस्थानकी अपेक्षा भेद-संघातसे ही बादरनिगोदवर्गणा होती है । सूक्ष्म निगोदमेंसे या प्रत्येकशरीरमेंसे आये हुए जीवोंके द्वारा और बादर निगोद जीवोंके द्वारा एक एक बादर निगोदवर्गणा निष्पन्न की जाती है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका-यतः बादरनिगोदोंसे सूक्ष्मनिगोद असंख्यात लोकगुणे हैं, अतः एक बादरनिगोद वर्गणा शुद्ध सूक्ष्म निगोदों से आरम्भ होती है यदि ऐसा कहा जाय तो क्या दोष है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, एक सूक्ष्मनिगोंदवर्गणा में स्थित जीवोंके अनन्तवें भागमात्र जीवोंका ही बादर निगोदों में संचार देखा जाता है, अतः एक सूक्ष्मनिगोदवर्गणासे एक बादरनिगोदवर्गणाका आरम्भ नहीं हो सकता | बादर निगोदद्रव्यवर्गणाओंके ऊपर सूक्ष्मनिगोदद्रव्यवर्गणा क्या भेदसे होती है, क्या संघात से होती है या क्या भेद-संघात से होती है ।। ११३ ॥ यह सूत्र सुगम है । Jain Education Intern ०ता० का० प्रत्योः च आगदेहि इति पाठ:Prsonal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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