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________________ ५, ६, ११६ ) बंधणाणुयोगद्दारे जवमज्झपरूवणा (२०१ जवमज्झमागहारेण सादिरेयेण,चडिदद्धाणदुगुणसंकलणमेत्तपक्खेवाणं तत्थाभावादो। तं जहा-जवमज्झभागहारं विरलिय सव्वदवे समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि जवमज्झपमाणं पावदि । पुणो हेढा गुणहाणिवग्गं सचउब्भागं दोरूवेहि गुणिदं विरलिय जवमज्झं समखंडं करिय दिण्णे एगेगो पक्खेवो पावदि । पुणो चडिदद्धाणसंकलणाए दुगुणाए ओवट्टिय विरलिय पुव्वं व जवमझे दिण्णे रूवं पडि अहियपक्खेवा होति । तेसु उवरिमविरलणरूवधरिदेसु इच्छिदपमाणं होदि। हेट्ठिमविरलणं रूवणं गंतूग जदि एगा पक्खेवसलागा लब्भदि तो उवरिमविरलणाए कि लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदाए एगरूवस्स असेखेज्जदिभागो आगच्छदि । एदम्मि उवरिमविरलणाए पक्खित्ते इच्छिददश्वभागहारोहोदि। एवं जाणिदूण णेयव्वं जाव धवक्खंधदव्वं ति। संपहि सांतरणिरंतरवग्गणाणमवहारो ण सक्कदे णेदं । कुदो ? तव्वग्गणाणं णिरंतरमवट्ठाणाभावादो। एवमवहारो त्ति समत्तमणुयोगद्दारं । जवमज्झपरूधणा दुविहा-दव्वद्वदाए पदेसट्टदाए चेदि । तत्थ दव्वदृदाए पत्तेयसरीरवग्गणदाए जवमज्झपमाणाए कोरमाणाए परूवणादिछअणुयोगद्दाराणि होति । परूवणाए अभवसिद्धियपाओग्गवग्गणामु जहणियाए वग्गणाए अत्थि वग्गणाओ । एवं णेयव्वं जाव उक्कस्सपत्तेगसरीरवग्गणे त्ति। पमाणं अभवसिद्धिय यवमध्य भागहारप्रमाण काल द्वारा अपहृत होता है, क्योंकि, जितने स्थान आगे गये हैं उनके दूने के संकलनमात्र प्रक्षेपोंका वहां पर अभाव है। यथा-यवमध्यके भागहारका विरलन करके उसपर सब द्रव्यके समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर प्रत्येक विरलन अङ्कके प्रति यवमध्यका प्रमाण प्राप्त होता है। पुन: नीचे (पूर्व) दोसे गुणित चतुर्थ भागसहित गुणहानिके वर्गका विरलन करके उस पर यवमध्यके समान खण्ड करके देने पर एक एक प्रक्षेप प्राप्त होता है । पुनः जितने स्थान आगे गये हैं उनके संकलनके दुनेसे भाजित कर जो लब्ध आवे उस पर पहलेके समान यवमध्यके देने पर प्रत्येक एकके प्रति अधिक प्रक्षेप प्राप्त होते हैं। उन्हे उपरिम विरलनके प्रति प्राप्त द्रव्यमेंसे घटा देने पर इच्छित द्रव्यका प्रमाण होता है। एक कम अधस्तन विरलन मात्र जाकर यदि एक प्रक्षेप शलाका प्राप्त होती है तो उपरिम विरलनमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर एक अङ्कका असंख्यातवां भाग आता है । इसे उपरिम विरलनमें मिला देनेपर इच्छित द्रव्यका भागहार होता है । इस प्रकार ध्रुवस्कन्ध द्रव्यके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। अब सान्तरनिरन्तरवर्गणाओंका भागहार लाना शक्य नहीं है, क्योंकि, उन वर्गणाओंका अन्तरालके विना अवस्थान नहीं पाया जाता । इस प्रकार अवहार अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। यवमध्यप्ररूपणा दो प्रकार की है-द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता। उनमें से द्रव्यार्थताकी अपेक्षा प्रत्येकशरीरवर्गणाको यवमध्यके प्रमाणसे करने पर प्ररूपणा आदि छह अनुयोगद्वार होते हैं- प्ररूपणा की अपेक्षा अभव्योंके योग्य वर्गणओंमेंसे जधन्य वर्गणाको वर्गणायें है। * अ०का० प्रत्योः ‘लद्धाभावादो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001813
Book TitleShatkhandagama Pustak 14
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1994
Total Pages634
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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